पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७७६

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७७२ ] [ कबीर (II) 'हउ'-~-गीत-वह शब्द लोक-वाणी के परे है। डा० माताप्रसाद गुप्त ने 'हउ' का अर्थ' 'हाहू -- एक गधर्व विशेष लिखा है और इस पक्ति का अर्थ इस प्रकार किया है - "जहाँ पर न हाहू (गधर्व-विशेष) जाता है और न वह गीत गाता है।" (iv) तहाँ न - ससार की इन सब वस्तुओं, प्रमेयों और बच्चो से परे का वह तत्व है।" (v) जरा मरण छूटै तथा तहाँ न ऊगै सूर-इत्यादि । समभाव के लिए देखें न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावक. । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । (श्रीमद्भगवतगीता-१५/६) (vi) नाथपथी प्रतीको का प्रयोग है। ( ३२६ ) एक अचंभा ऐसा भया, करणीं थे कारण मिटि गया ॥टेक॥ करणी किया करम का नास, पाचक मॉहि पुहुप प्रकास ॥ पुहुप माहि पावक प्रजरै, पाप पुन दोऊ भ्रम टरै ॥ प्रगटी बास वासना धोइ, कुल प्रगट्यौ कुल घाल्यौ खोइ ॥ उपजी च्यत च्यत मिटि गई, भौ भाम भागा ऐसी भई॥ उलटी गंग मेर कू चली, धरती उलटि अकासहि मिली ।। दास कबीर तत ऐसा कहै, ससिहर उलटि राह की गहै ।। शब्दार्थ-करणी कार्य, साधना। कारण- (1) अज्ञान, (11) जन्म-मरण का मूलभूत कारण । पावक = (1) अग्नि, ज्ञान की अग्नि, (u) मूलाधार चक्र की चण्डाग्नि । पुष्प=(1) अनासक्ति का आनद (u) सहस्रार कमल' । पावक=(1) ज्ञानाग्नि, (11) निरजन रूपी परमतत्व । वास-वासना-(1) वासना-रूप दुर्गंध, (1) कमल से निकलने वाली सुगध । कुल प्रगट्योसाधको के कुल का ज्ञान प्रकट हो गया है । कुल घाल्यौ= अज्ञान के कुल का नाश हो गया है। च्यत= ज्ञान । च्यत=सासारिक चिन्ताएँ। धरती-(1) जड माया, (1) मूलाधार चक्र । आकाश =(1) ब्रह्म, (11) शून्य चक्र, ब्रह्मरन्ध्र । ससिहर-चन्द्रमा (1) चैतन्य सहस्रार से निस्सृत अमृत । राहु=(1) अज्ञान, (I) विषयो का विष । सन्दर्भ- इस पद मे कबीर आत्म-स्वरूप प्राप्ति की साधना का वर्णन करते हैं। इस साधना के दो पक्ष हैं--(1) ज्ञान एवं भक्ति तथा (1) काया योग । इस पद का अर्थ दोनो ही पक्षो मे पूर्णत. घटित हो जाता है। यथा ज्ञान एवं भक्ति परफ अर्थ-एक ऐसे आश्चर्य की बात होगई कि कार्य के द्वारा कारण समाप्त हो गया अर्थात् माधना के द्वारा अज्ञान का नाश होगया। साधना ने कतंत्य के अभिमान एवं कर्मों के प्रति फलासक्ति को समाप्त कर दिया