पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८२४

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अलंकार--(1) साग रूपकसौभाग्यवती नारी एवं जीवात्मा के रुपक का निर्वाह है ।

      (२) वक्रोक्ति--पीव उघारा ।
      (३) गूढौक्ति--कासनि लेऊ'।
      (४) पुनरुक्ति प्रकाश…बन बन । 
      (५) विरोधाभास की व्यंजना--पीव मिलै' रोऊ ।
 विशेष-- (१) प्रतीको का प्रयोग है--परौसनि, कंत, लरिका, सुहागिन।
       (२) सूफी शैली के दाम्पत्य प्रेम का वर्णन है।
       (३) इस पद मे कबीर भक्ति-क्षेत्र का अतिक्रमण करके प्रेम के क्षेत्र मे

चले जाते हैं । अतएव रहस्यवाद की मार्मिक व्यंजना दिखाई देती है । प्रेमी प्रिय पर एकाधिकार चाहता है । प्रेम का क्षेत्र एकान्त होता है । कबीर की जीवात्मा भी यही चाहती है कि प्रिय के ऊपर मेरा एकाधिकार रहे । प्रिय पर पूर्ण स्वत्व स्थापित करने की मन स्थिति का मार्मिक शब्दो मे उदघाटन किया गया है।

    (४) पीव क्यू'--उधारा । लौकिक दृष्टि से अर्थ करने पर यह कथन,

उन लोगो पर एक प्रकार का व्यग्य करता है, जो दान दक्षिणा लेकर दूसरो के नाम भजन-पूजन, मत्र-जाप आदि करते है । ठीक ही है--बिना मरे, स्वर्ग के दर्शन नही होते हैं।

   (५) माशा-- १ तोले का १२ वा भाग।
   (६) रत्ती--१ माशे का ८ र्वा भाग।
   (७) माशा माँगना और रत्ती न देना--लोकोक्ति है । यहाँ अर्थ इस
प्रकार होगा--माया का यह प्रयत्न करना कि जीवात्मा परमात्मा से बहुत दूर
तक पृथक रहे तथा जीवात्मा का यह सकल्प कि वह क्षण भर के लिए भी उनसे
विलग नही होगी ।
      पडौसिंन--माया के साथ जीव का साहचर्य है, परन्तु माया पराई हैं--
जीव की नही । जीव के साथ माया का सम्बन्ध केवल अज्ञान के कारण है--वह
सम्बन्ध पारमार्थिक एव सच्चा सम्बन्ध नही है । इसी से वह पडोसिन हैं ।
  (९) लरिका--कर्म जीवात्मा के प्रयास से उत्पन्न होता है । इसी से वह

जीवात्मा का लडका है । भक्ति के परिपाक के लिए सासारिक कर्म का त्याग आवश्यक है । वह माया ही को सौपे जा सकते हैं।

   (१०) जे कछु"" ॰॰ तोरा--चैतन्य स्वरूप आत्मा और माया का सम्बन्ध

मुघा होते हुए भी शाश्वत हैं । भक्ति के उल्लास आदि वृत्यात्मक अनुभूति का सम्बन्ध अन्तकरण (माया) और चैतान्य (आत्मा) दोनो के साथ रहता है ! इसी से आधा तोरा' (माया का) कहा गया है ।

               (३७२)
 रांम चरन जाकें रिदै वसत है,ता जन कौ मन क्युं डोलै ॥
 मानों आठ सिध्य नव निधि ताकें, हुऱषि हुऱषि जस बोलै॥टेक॥