पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८२९

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ग्रन्र्थावलि ] [

      भावार्थ--हे राम,निर्बल बालक की भांति मुझे  गोंद मे लेने की कृपा करें
अर्थात् मुझको अपना संरक्शन प्रदानं करें।कलिकाल ने मुझको मार कर(शुद्ध् चेतन्य  
स्वरूप से वचित करके)विषय-वासनाओ मे डुवा दिया है।हे भद्र महशयो,तुम्हे
प्रभु के देश मे जाना है और देखना है कि वहाँ के निवासी किस प्रकार रह्ते हैं-
उन्की रहन-सहन कैसी है। हे काग,तुझे उड कर उनके देश कौ जाना हें,जिन्से  
मेरा मन लगा हुआ है।वाजार ढुँढना ओर नगर को ढुँढ लेना। गावँ के किनारे
ही ढुँढ कर मत चले आना। प्रियतम के बिना मेरी वही दशा है जो जल के बिना
ह्स की तथा सुर्य के बिना रात्रि की होती है।कबीर कहते है कि मेरी जीवत्मा
अपने पति परमत्मा को पैरो पडकर मना लूंगा अपने अनुकुल कर लूँगा।
        अलकार--!);पुनरुति प्रकाश-किन किन।
                      !!)उपमा-निदरक सुत।
                     !!!)रुपक-विष।
       विरोष--(!)सूफि प्रेम-पध्दति के दाम्पत्य-प्रेम का प्रभाव स्पष्ट है।
जायसी ने भी लिखा है-
         पिय सो कहेउ सदेसडा हे भॅवरा हे काग।
   सो धनि विरहे जरि मुई जेहि के घुवा हम लागि।
      !!)सिघ्दो ओर सन्तो के साहित्य मे 'काग' अज्ञानी चित का प्रतिक है।
परन्तु यहाँ कबीर ने अज्ञानी चित के साथ प्रेम-सदेश ले जाने की वृति को सत्रि-
विष्ट कर दिया है।यह लोक-परम्परा का प्रभाव है। प्रियतम के सदेश ओर कौए
का निकट सम्बन्ध माना जाता है।इसमे समस्त ब्न्धुजीवाओ को परिलोकिक चिन्तन
की प्रेरणा प्रदान की गई है।
                       
                  
                        राग बसंत
                          (३७७)
     सो जोगी जाकं सहज भाइ,
                 अकल प्रीति की भीख खाइ॥टेक॥
सब्द अनाह्द सीगी नाद ,काम क्रोध विषिया न बाद॥
  मन मुद्रा जाकै गुर कौ ग्यांन,त्रिकुट कोट मैं घरंत घ्यान॥
  मनहीं करन कौ सनांन,गुर कौ सबद ले ले घर धियांन॥
  काया कासी खोजँ बास,तहां जोति सरूप भयौ परकास॥
  ग्यांन मेषली सहज भाइ,बक नालि कौ रस खाइ॥
  जोग मुल की देह बद,कहि कबीर थिर होइ कंद॥ 
      शब्दार्थ--रगव=प्रेम भाव।अकल=अखडित।वाद=वाद-वियाद।
मुद्रा=योगियो का उपकरण विशेप ।मेखंली=करधनी,कटिसुंत्र।बक नालि=
सुषुम्ना।कद=मिश्री।