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ग्रन्थाव्ली ] [९७

 विरोध किया है|अभिप्रेत यह है कि सच्चा योगी अन्तमुखी चितवृत्ति बना कर
 अपनी काया के भीतर (अन्त करण)मे स्थित शिव तत्व की उपासना करता है |
                      (३७५)

मेरौ हार हिरांनौ मै लजाऊ,

     सास दुरासनि पीव डराऊं||टेक||
  हार गुह्यौ मेरौ राम ताग,बिचि मान्यक एक लाग||
  रतन प्रवालै परम जोति,ता अंतरि अंतरि लागे मोति ||
  पंच सखी मिलिहै सुजांन,चलहु तजई थे त्रिबेणी न्हांन||
  न्हाइ धोइ के तिलक दोन्ह,नां जानू हार किनहूं लीन्ह||
  हार हिरांनौ जन विमल कीन्ह,मेरौ आहिपरोसनि हार लीन्ह||
  तीनि लोक की जानै पीर,सब देव सिरोमनि कहै कबीर||
शब्दार्थ--हार =शुध्द चित्तवृत्ति से तात्पर्य है|पुरासनि=कठोर,त्रुध्द 
होने वाली|सास=वोध वृत्ति|ताग=डोरा|मान्यक=माणिक|बिमन=
दुखी|
संदर्भ--कबीर की आत्मा सुन्दरी प्रभु के वियोग मे दुखी होकर 
कह्ती हे|
     भावार्थ--ईश्वरोन्मुखी वृत्ति रुपी मेरा हार खो गया है|इससे मैं

लज्जित हो रही हूं| मुझे बोध वृत्ति रुपी कठोर और परमात्मा रुपी पति का डर लग रहा है|वृत्ति वृत्ति रुपी मेरा वह हार ह्ररि-नाम रूपि तागे मे पिरोया हुआ था|इसके बीच बीच मे प्रीति और समर्पण के मणि माणिक लगे हुए थे |उसमे भक्ति कि परमज्योति रूपी अनेक मूगे त्तथा अन्य रत्न लगे हुए थे|उसमे थोडे- थोडे अन्तर पर मुक्ति रूपी मोती लगे हुए थे |मेरी पाचो इन्द्रियो एव उनकी आसक्ति रूपी सखियो ने मुभ से कहा था कि चलो त्रिगुण-रूपी त्रिवेणी मे स्नान कर आएँ (इन्द्रियो से प्रेरित मैं त्रिगुणात्मक संसार मे लिप्त होने चली गई)|विषय-सुख भोग कर जब मैने श्रृगार का तिलक किया--अर्थात़् काम भाव को जीवन का सार समझा,तो उस समय मुझे मालुम हुआ कि वोध वृत्ति रूपी मेरा हार किसी ने ले लिया है|हार खो जाने से ह्म सबका मन दुखी हो गया|माया(वासना) रूपी मेरी पडोसिन ने ही मेरा हार ले लिया है| कबीर कह्ते है कि सब देवताओ के शिरोमणि भगवान राम तीन लोको के प्राणियो की व्यथा को समझते हें (वह शुध्द अन्त करण का वोघ-वृत्ति रूपी हार मुझे वापिस दिला कर मेरी व्यथा दुर करैंगे ऐसा मेरा विश्वास है|)

         अलंकार--(1)सागरूपक-सम्पृणं पद मे |हार और वोध-वृत्ति के रूपक का

आघ्यन्त निर्वाह है |

               (11)पुनरूक्ति प्रकाश---विचि विचि,अतरि अतरि|
               (111)अनुप्रास---७ वीपक्ति , हार हिरानो,हार |