पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८४६

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८ ४ २ ] [ कबीर

जि) मम माया संभव संसारा । जीव चराचर विविध प्रकार, ।

४ ४ ४ पुनि पुनि सत्य कहउ' तोहि पाही । मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं है ४ ४ ४

भगतिवंत अति नीचउ पुरानी । मोहि प्रानप्रिय अस मम बानी है (गोस्वामी तुलसीदास) (शा) तन करच्चाडारू" । कबीर को यह कामना बहुत कुछ इस प्रकार की हैं-जेहि जोनि जन्मौ कर्म बस तहाँ राम पद अनुरागऊ" । राग मालीगौडी ( ३९० ) पंडिता मन रजिता, भगति हेत रुयौ लाइ रे । प्रेम प्रीति गोपाल भजि नर और कारण जाइ रे 1। टेक ।। दांम छे पणि कांम नांही, नंयांन छे पणि धंध रे । श्रवण है पणि सुरति नांही, नैन छै पणि अधि रे ।। जाकै नाभि पदम सु उदित ब्रह्मा, चरन गग तरग रे । कहै कबीर हरि भगति बांछू जगत गुर गोव्यद रे ।। शन्दार्ण-रजिता = अनुरक्त । कारण उपाय । जाइरे जाने दो । दाम= घन 1 छै=है । पणि=पर । नाभि= टू डी । वाछू=वांछा करता हूँ । सन्दर्भ-कबीर कहते है कि भगवान की भक्ति ही काम्य होनी चाहिए । भावार्थ----; रे विषयों में अनुरक्त मन वाले पडित तुम भगवान की भक्ति में अपना मन लगाओ । प्रेम और प्रीति (श्रद्धा) पूर्वक भगवान का भजन करो तथा अन्य सव वातो को (व्यर्थ समझ कर) जाने दो । तुम्हारे पास घन है परन्तु उसके सदुपयोग के लिए काम नहीं करते हो । तुमको बौद्धिक ज्ञान प्राप्त है, परन्तु तुम संसार के यन्त्रों में फँसे हुए हो । तुम्हे श्रवणशक्ति प्राप्त, है, परन्तु भगव्रद् चर्चा सुनकर तुम्हारे भीतर भगवान की स्मृति नहीं जागती है : तुम नेत्रों के होते हुए भी भगवान का साक्षात्कार न कर सकने के कारण अवे ही कहे जाओगे । कबीर कहते हैं कि जिन भगवान के नाभि-कमल से व्रह्या की उत्पत्ति हुई है तथा जिनके चरणों से गगा की धारा प्रकट होकर यहीं है, मैं उन्हीं भगवान की भक्ति की कामना करता हूँ । वे गोविन्द ही जगत को ज्ञान प्रदान करने वाले गुरु हैं । अलंकार-") पदमैत्री…पडिता मन रजिता । गंग तरग । सा) विशेपोक्ति की व्यंजना-दाम-नाहीं, श्रक्य-नाही । (गां) विरोघाभास्-रयान -द्द्द्द रे । नैन अधरे । (1५) परिकंरांकुर गोविन्द । विशेष-- (1) इस पद में कबीर के राम विष्णु, के अवतार रूप में हमारे सामने आते हैं और वह सगुण भक्त कवियों की षक्ति में खडे हुए दिखाई देते हैं 1