पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८७२

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८६८ ] [ कबीर भूलि पर्यो जीव अधिक डराई, रजनी अंध कूप ह आई ॥ माया मोह उनवे भरपूरी, दादुर दामिनि पवनां पूरी ॥ तरिपै बरिषै अखंड धारा, रैनि भांमनी भया अंधियारा ॥ तिहि बियोग तजि भए अनाथा परे निकु ज न पावै पथा ॥ . वेद न आहि कहू को मान, जानि बुझि मै भया अयान ।। नट बहु रूप खेलै सब जाने, कला केर गुन ठाकुर माने ।। ओ खेल सब ही घट मांहीं, दूसर के लेखै कछु नाहीं॥ जाके गुन सोई पै जाने ओर को जानै पार अयाने ॥ भले रे पांच औसर जब आवा, करि सनमान पूरि जम पावा ।।.. दान पुन्य हम दिहूँ निरासा, कब लग रहूं नटारंभ काछा॥ फिरत फिरत सब चरन तुरांने, हरि चरित अगम कथै को जाने । गण गध्रप मुनि अंत न पावा, रह्यो अलख जग धंधै लावा ॥ इहि बाजी सिव बिरचि भुलांनां, और बपुरा को क्यंचित जानां ॥ , त्राहि त्राहि इम कीन्ह पुकारा, राखि साई इहिबारा ।।:: कोटि ब्रह्मड गहि दीन्ह फिराई, फल कर कीट जनम बहुताई ॥ ईस्वर जोग खरा जब लीन्हां, टर्यो ध्यान तप खंड न कीन्हां ।। सिध साधिक उनथै कहु कोइ, मन चित अस्थिर कहुँ कैसे होई ॥ लीला अगम कथै को पारा, बसहु समीप कि रही निनारा॥ खग खोज पीछे नहीं, तूं तत अपरपार । बिन परचै का जांनिये, सब झूठे अहकार ।। शब्दार्थ-लुकाना=छिप गया, आवृत्त हो गया । बध= बन्धन । विजितपरे, वचित । खग= पक्षी रूपी जीव । पीछे नही= पीछे मत रह। परिच= साक्षात्कार । सन्दर्भ--कबीर का कहना है कि भगवान का साक्षात्कार वाह्याचार के द्वारा सम्भव नहीं है । वह साधना का विपय है। ___ भावार्थ-जीव ने झूठ के भी झूठ (पूर्ण रूपेण मिथ्या) इस जगत को सत्य समझ लिया है। इस भूठे स्वरूप में वह सत्य तत्त्व छिप गया है । जीव ने अपने ऊपर अनेक प्रकार के कर्मों के बधन डाल रखे हैं। इस कारण कर्मों से रहित वह परम तत्त्व इस कर्म-वन्धन वाले जीव के समीप नही रहता है । छ दर्शनो तथा छः आथमो की रचना की गई है, परन्तु जीव तो छ -सो के स्वाद मे तथा काम में रस लेता रहा है। चारो वेदों तथा छः शास्त्रों ने उस परम तत्त्व का वर्णन किया है, उन्होने अनन्त विद्याओ ने भी उसका वर्णन किया है। परन्तु उस परम तत्त्व को कौन जान पाया है ? जीव ने तप, तीर्थ, व्रत, पूजा, धर्म, नियम, पुण्य तथा अन्य कितनी ही साधनायें की । वद शास्त्रानुसार आचरण करता रहा, पर इनसे उस परम तत्त्व तक उसली पहुंच नहीं हो सकी। भगवान अपनी लीला से जीव को अनेकानेक