पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८८७

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ग्रन्थावली ] [८८३

                         (viii)पुनरूत्ति प्रकाश जरत जरत।
        विशेष-(i)खेल तुम्हारा मोरा-किसी की जान गयी और आपकी अदा ठहरी।
               (ii)मेघ न बरसैपियावै-समभाव के लिए तुल्नात्म्क अध्ध्यन करे-
                 जौ धन वरषै समय सिर जौ भरि जनम उदास।
                 तुलसी या चित्त चातकहि तऊ तिहारी आस।
                 जीव चरावर जहै लगे है सबको हित मेह।
                 तुलसी चातक मन वस्यो धन सो सहज सनेह।
                                                                (गोस्वामी तुलसीदास्)
            (iii)भया दयाल    आस- तुलना करे ।
             सुनि हो मै हरि आवन की आवाज।
             महल चटे-चटि जोऊँ सजनी,कब आवै महाराज।
             वादुर मोर पपीहा बोले,कोमल मधुरे साज।
             उमग्या इन्द्र चहुँ दिसी वरसै,दामण छोडि लाज।
             धरती रूप नवा-नवा धरिया,इन्द्र मिलण कै काज।
             मीराँ के प्रभु गिरीधर नागर,बेगि मिलो महाराज।      (मीराँबाई)
           (iv)अपने औगुन-पारा   तुलना करे।
             जो अपने सब औगुन कहहू।बाढहि कथा लहहूँ।           
                                                                         (गोस्वामी तुलसीदास्)   
           (v)मै रनिरासो-जाई   '   समभाव के लिए देखे।
                  तुम अपनायौ तभ जानिहौ,जब मन फिरि परिहै।
           तथा-जही सुभाव विष्यानी ल्ग्यो,तेही सहज नाथ सौं नेह छाडि छल करिहै।       (गोस्वामी तुलसीदास्)      
                                        (९८)
             रांम नांम निज पाया सारा,अबिरथा भूठ सजल स्ंसारा।
            हरि उतग मै जाति पतगा,जबकु केहरी कै ज्यूं संगा॥
            क्यचिति है सुपनै निधि पाई,नही सोभा कौ घरौ लुकाई।
           हिरदै न समाइ जांनियै नही पारा,लागै लोभ न और हकारा॥
           सुमिरत हू अपनै उनमानां,क्यचित जोग राम मै जांनां।
           मुखां साघ का जानिए नही असाघा,क्यचित जोग राँम मै लांघा॥
          कुबिज हुए अम्र्त फल ब्छिया, पहुन्छा तब मन पूगी इछयां।
          नियर थे दूरी दुरी थै नियरा,रामचरीत नजानिए नियरा।
          सीत थै अगिन फुनी होइ, रबी थै सशि थै रवी सोइ।
          सीत थै अगिन परजरैई,जल थै निधि निधि थै थल करई॥
          ब्र्ज थै तिण खिण भौतिर होई, तिंण थै कुलिस करै फुनि सोई।
          गिरवर छार छार गिरी होई,अविगती गती जानै नहीं कोई॥