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ऊपर निकालना संभव नहीं होगा। छोटे व्यास की कुंई में धीरे-धीरे रिस कर आ रहा पानी दो-चार हाथ की उंचाई ले लेता है। कई जगहों पर कुंई से पानी निकालते समय छोटी बाल्टी के बदले छोटी चड़स का उपयोग भी इसी कारण से किया जाता है। धातु की बाल्टी पानी में आसानी से डूबती नहीं। पर मोटे कपड़े या चमड़े की चड़स के मुंह पर लोहे का वजनी कड़ा बंधा होता है। चड़स पानी से टकराता है, ऊपर का वजनी भाग नीचे के भाग पर गिरता है और इस तरह कम मात्रा के पानी में भी ठीक से डूब जाता है। भर जाने के बाद ऊपर उठते ही चड़स अपना पूरा आकार ले लेता है।

पिछले दौर में ऐसे कुछ गाँवों के आसपास से सड़कें निकली हैं, ट्रक दौड़े हैं। ट्रकों की फटी ट्यूब से भी छोटी चड़सी बनने लगी है।

कुंई के व्यास का सम्बन्ध इन क्षेत्रों में पड़ने वाली तेज गरमी से भी है। व्यास बड़ा हो तो कुंई के भीतर पानी ज्यादा फैल जाएगा। बड़ा व्यास पानी को भाप बनकर उड़ने से रोक नहीं पाएगा।

कुंई को, उसके पानी को साफ रखने के लिए उसे ढंक कर रखना जरूरी हैं। छोटे मुंह को ढंकना सरल होता है। हरेक कुंई पर लकड़ी के बने ढक्कन ढंके मिलेंगे। कहीं-कहीं खस की टट्टी की तरह घास-फूस या छोटी-छोटी टहनियों से बने ढ़क्कनों का भी उपयोग किया जाता है। जहाँ नई सड़कें निकलती है और इस तरह अपरिचित लोगों की आवक-जावक भी बढ़ गई है, वहां अमृत जैसे इस मीठे पानी की सुरक्षा भी करनी पड़ती है। इन इलाकों में कई कुंइयों के ढक्कनों पर छोटे-छोटे ताले भी लगने लगे हैं। ताले कुंई के ऊपर पानी खींचने के लिए लगी घिरनी, चकरी पर भी लगाए जाते हैं।

कुंई गहरी बने तो पानी खींचने की सुविधा के लिए उसके ऊपर घिरनी या चकरी भी लगाई जाती है। यह गरेड़ी, चरखी या फरेड़ी भी कहलाती है। फरेड़ी लोहे की दो भुजाओं पर भी लगती है। लेकिन प्राय: यह गुलेल के आकार के एक मजबूत तने को काट कर, उसमें आर-पार छेद बना कर लगाई जाती है। इसे औड़ाक कहते हैं | ओड़ाक और चरखी के बिना इतनी गहरी और संकरी कुंई से निकालना बहुत कठिन काम बन सकता है। ओड़ाक और चरखी चड़सी को यहां-वहां बिना टकराए सीधे ऊपर तक राजस्थान की लाती है, पानी बीच में छलक कर गिरता नहीं। वजन खींचने में तो इससे सुविधा रहती ही है।