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[ACT I.
ŚAKUNTALÅ.

प्रि० । (मुसक्वाकर) हम छुटानेवाली कोन हैं। राजा दुष्यन्त छुटावेगा जो सब तपोवन का रखवाल्गा हे ॥

दुष्य० । (शाप ही साप) यह अवसर प्रगट होने का अरछा हैं। (थोड्रा सा आगे चलकर) मुझे डर किस का है। परंतु (इतना कह फिर हट गया) इस से तो खुल जायगा कि मैं राजा हूं। अब जो हो सो हो साधारण परदेसी बनकर इन से अतिथिसत्कार मांगूं क्येांकि इन से कुछ बात चीत तो अवश्य करनी चाहिये ॥

शकु० । यहां भी भैरे ने पीछा न छोड़ा। अब कहां जाऊं । (एक ओर को चलती हुई और निधर भौंरा जाता है उधर देखती हुई) अरे दूर हो। हे सखियो में जहां जाती हूं यह मेरे पीछे ही पीछे लगा फिरता है । इस से मुझे बचाओ ॥

दुष्य० । (भाट पट आगे चढ़कर) जब तक दुष्टों को दण्डदेनेवाला मैं पुरुवंशी पृथ्रूी का रखवाला बना हूं तब तक कौन ऐसा है जो इन ऋषिकन्याओं को सताता है ॥

(तीनों चकित होकर देखने लगीं)

अन० । महाराज यहां सतानेवाला मनुष्य तो कोई नहीं है। हमारी सखी को एक भेरेि ने घेरा था । इस से यह भय खा गई है । (दोने सखी शकुन्तला को देखती हुई)

दुष्य° । (शकुंतला के निकट नाकर) हे सुन्दरी तेरा तपोव्रत सफल ही ॥ (शकुन्तला लक्ज़ित हो धरती की ऑर देख चुप रह गई)

अन० । इस अनोखे पाहुने को अच्छे आदर से लेना चाहिये ॥

प्रि० । आओ परदेसी। सखी शकुन्तला तू जा कुटी में से कुछ फल फून भेट को ले आ । पांव धोने को जल नदी से ले लेंगी । (पेड़ सींचने के घ३ों की ओर देखती हुई।

दुष्य० । तुम्हारे मीठे बोलों ही से कलेजा ठंढा हो गया ॥

अन० । आओ पाहुने घड़ीक इस कदलीपत्र के आसन पे बिराजो।