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अध्याय ७ : कुछ अनुभव

की कल्पना सिर्फ मलाबारमें ही हो सकती है। वहांके विशाल वृक्ष, बड़े-बड़े फल इत्यादि देखकर मैं तो चकित रह गया।

जंजीबारसे मोजांबिक और वहांसे लगभग मईके अंतमें नेटाल पहुंचा।

कुछ अनुभव

नेटालका बंदर यों तो डरबन कहलाता है, पर नेटालको भी बंदर कहते हैं। मुझे बंदरपर लिवाने अब्दुल्ला सेठ आये थे। जहाज धक्केपर आया। नेटालके जो लोग जहाजपर अपने मित्रोंको लेने आये थे, उनके रंग-ढंगको देखकर मैं समझ गया कि यहां हिंदुस्तानियोंका विशेष आदर नहीं। अब्दुल्ला सेठकी जान-पहचानके लोग उनके साथ जैसा बरताव करते थे उसमें एक प्रकारकी क्षुद्रता दिखाई देती थी, और वह मुझे चुभ रही थी। अब्दुल्ला सेठ इस फजीहतके आदी हो गये थे। मुझपर जिनकी नजर पड़ती जाती वे मुझे कुतूहलसे देखते थे; क्योंकि मेरा लिबास ऐसा था कि मैं दूसरे भारतवासियोंसे कुछ निराला मालूम होता था। उस समय फ्राक कोट आदि पहने था और सिरपर बंगाली ढंगकी पगड़ी दिये था।

मुझे घर लिवा ले गये। वहां अब्दुल्ला सेठके कमरेके पासका कमरा मुझे दिया गया। अभी वह मुझे नहीं समझ पाये थे; मैं भी उन्हें नहीं समझ पाया था। उनके भाईकी दी हुई चिट्ठी उन्होंने पढ़ी और बेचारे पसोपेशमें पड़ गये। उन्होंने तो समझ लिया कि भाईने तो यह सफेद हाथी घर बंधवा दिया। मेरा साहबी ठाट-बाट उन्हें बड़ा खर्चीला मालूम हुआ; क्योंकि मेरे लिए उस समय उनके यहां कोई खास काम तो था नहीं। मामला उनका चल रहा था ट्रांसवालमें। सो तुरंत ही वहां भेजकर वह क्या करते? फिर यह भी एक सवाल था कि मेरी काबलियत और ईमानदारीका विश्वास भी किस हद तक किया जाय? और प्रिटोरियामें खुद मेरे साथ वह रह नहीं सकते थे। मुद्दाले प्रिटोरियामें रहते थे। कहीं उनका बुरा असर मुझपर होने लगे तो? और यदि वह मामलेका काम मुझे न दें तो और काम तो उनके कर्मचारी मुझसे भी अच्छा कर सकते थे। फिर कर्मचारीसे यदि भूल हो जाय, तो कुछ कह-सुन भी सकते थे; मुझे तो कहनेसे