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आत्म-कथा : भाग २


मौलिक भेद थे, उन्हें हम दोनों जानते थे। चर्चाद्वारा उन भेदों को मिटा देना असंभव था। जहां-जहां उदारता, सहिष्णुता और सत्य है, वहां भेद भी लाभ दायक होते हैं। मुझे इस दंपती की नग्नता, उद्यमशीलता और कार्य-परायणता बड़ी प्रिय थी। इससे हमें बार-बार मिला करते।

इस संबंधने मुझे जागरुक कर रखा। धार्मिक पठन के लिए जो फुरसत प्रिटोरिया में मुझे मिल गई थी वह तो अब असंभव थी; परंतु जो-कुछ भी समय मिल जाता उसका उपयोग में स्वाध्याय करता; मेरा पत्र-व्यवहार बराबर जारी था। रायचंदभाई मेरा पथ-प्रदर्शन कर रहे थे। किसी मित्र ने मुझे इस संबंध नर्मदाशंकर की 'धर्मविचार' नामक पुस्तक भेजी। उसकी प्रस्तावना से मुझे सहायता मिली। नर्मदाशंकर के विलासी जीवन की बातें सुनीं थी। प्रस्तावना में उनके जीवन में हुए परिवर्तनों का वर्णन मैंने पढ़ा और उसने मुझे आकर्षित किया, जिससे कि उस पुस्तक के प्रति मेरा आदर-भाव बढ़ा। मैंने उसे ध्यानपूर्वक पढ़ा। मैक्समूलर की पुस्तक 'हिंदुस्तान से हमें क्या शिक्षा मिलती है ? 'मैंने बड़ी दिलचस्पि से पढ़ी। थियोसोफिकल सोसाइटी द्वारा प्रकाशित उपनिषदों का अनुवाद पढ़ा। उससे हिंदू-धर्म के प्रति मेरा आदर बढा़। उसकी खुबी मैं समझने लगा, परंतु इससे दुसरे धर्म के प्रति मेरे मन में अभाव न उत्पन्न हुआ। वाशिंगटन इरविंग-कृत मुहम्मद का वरित और कार्लाइल-रचित 'मुहम्मद-स्तुति' पढ़ी। फलतः पैगंबर साहब के प्रति भी मेरा आदर बढ़ा। जरथुस्त के वचन' नामक पुस्तक भी पढी़।

इस प्रकार मैंने भिन्न-भिन्न संप्रदायों का कम-ज्यादा ज्ञान प्राप्त किया। इससे आत्म-निरीक्षण बढ़ा । जो-कुछ पढ़ा या पसंद हुआ उसपर चलने की आदत बढ़ीं। इससे हिंदू-धर्म में वर्णित प्राणायाम-विषयक कितनी ही क्रियायें, पुस्तकें पढ़कर मैं जैसी समझ सका था, शुरू कीं, पर कुछ सिलसिला जमा नहीं। में आगे न पढ़ सका। सोचा कि जब भारत लौटुंगा तब किसी शिक्षक से सीख लुगा, पर वह अबतक पूरा न हो पाया।

टाल्स्ट्राय की पुस्तकों का स्वाध्याय, बढ़ाया। उनकी गोस्पेल इन

गुजरातके एक प्रसिद्ध कवि ।