अच्छा मेल बैठ गया। एक के साथ तो रोज १ घंटा शतरंज खेला करता था। जहाज के डाक्टर ने मुझे एक ‘तामिल-शिक्षक' दिया था और मैंने उसका अभ्यास शुरू कर दिया था।
नेटाल में मैंने देखा कि मुसलमान के निकट परिचय मैं आने के लिए मुझे उर्दू सीखनी चाहिए, तथा मदरासि से संबंध बांधने के लिए तामिल जान लेना चाहिए। उसके लिए मैंने अंग्रेज मित्र के कहने से डेक के यात्रियों में से एक अच्छा मुंशी खोज निकाला है, और हमलोगों की पढ़ाई अच्छी चलने लगी थी। अंग्रेज अफसर की' स्मरण-शक्ति मुझ से तेज थी। उर्दू अक्षरो को पहचानने में मुझे दिक्कत पड़ती थी; पर वह तो एक बार शब्द देख लेने के बाद उसे भूलता ही न था। मैंने अपनी मेहनत की मात्रा बढ़ाई भी; पर उसका मुकाबला न कर सका।
तामिल की पढ़ाई भी ठीक चली। उसमें किसी की मदद न मिल सकती थी। पुस्तक लिखी भी इस तरह गई थी कि बहुत मदद की जरूरत न थी।
मुझे आशा थी कि देश जाने के बाद यह पढ़ाई जारी रह सकेगी; पर ऐसा न हो पाया। १८९३ के बाद मुझे पुस्तकें पढ़ने का अवसर प्रधानतः जेलों मैं ही मिला है। इन दोनों भाषा को ज्ञान मैने बढ़ाया तो; पर वह सब जेल में ही हुआ--तमिल को दक्षिण अफ्रिका की जेलों,और उर्दू का यरवड़ा पर तामिल बोलने का अभ्यास कभी न हुआ। पढ़ना तो ठीक-ठीक आ गया था; किंतु पढ़ने का अवसर ने अपने से उसका अभ्यास छूट सा जाता हैं, इस बात का मुझे बराबर दुःख बना रहता हैं। दक्षिण अफ्रीका के मदरासी भाइयों से मैंने खब प्रेम-रस पिया हैं। उनका स्मरण मुझे प्रतिक्षण रहता है। जब-जब मैं किसी तामिल तेलगू को देखता हूं, तो उनकी श्रद्धा, उनकी उद्योगशीलता, बहुतों का नि:स्वार्थ त्याग, याद आये बिना नहीं रहता, और ये सब लगभग निरक्षर थे। जैसे पुरुष, वैसी ही स्त्रियां। दक्षिण अफ्रीका की लड़ाई ही निरक्षरों की थी और निरक्षर ही उसके लड़ने वाले थे। वह गरीबों की लड़ाई थीं और गरीब ही उसमें जूझे।
इन भोले और भले भारतवासियों का चित्त चुराने के लिए भाषा की भिन्नता कभी बाधक न हुई। वे टूटी-फूटी हिंदुस्तानी और अंग्रेजी जानते थे और उससे हम अपना काम चला लेते थे; पर मैं तो इस प्रेम का बदला चुकाने के लिए तामिल सीखना चाहता था। अतः तामिल तो कुछ-कुछ सीख ली। तेलगू जानने का