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आत्म-कथा : भाग २

प्रयत्न हिंदुस्थान किया; परंतु वर्णमालाले झागे न बढ़ सका।

इस तरह तामिल तेलगू न पढ़ पाया और अब शायद ही पढ़ पाऊं। इसलिए मैं यह आशा रख रहा हूं कि ये द्राविड़ भाषा-भाषी हिंदुस्तानी सीख लेंगे। दक्षिण अफ्रीका के द्राविड़-- 'मद्रासी' तो अवश्य थोड़ी-बहुत हिंदी बोलते हैं, मुश्किल है अंग्रेजी पढ़े-लिखों की । ऐसा मालूम होता है, मानो अंग्रेजी का ज्ञान हमें अपनी भाषायें सीखने में बाधक हो रहा है।

पर यह तो विषयांतर हो गया। हमें अपनी यात्रा पूरी करनी चाहिए। अभी पोंगला के कप्तान का परिचय करना बाकी है। अस्तु। हम दोनों मित्र हो गये थे। यह कप्तान प्लीमथ बंदके संप्रदाय का था । इसलिए जहाज-विद्या की अपेक्षा अध्यात्मिक विद्या की ही बातें हम दोनों में अधिक हुई। उसने नीति और धर्म-श्रद्धा फर्क बताया। उसकी दृष्टि से बाइबिल की शिक्षा लड़कों का खेल था। उसकी खूबी उसकी सरलता हैं। बालक, स्त्री-पुरुष, सब ईसाक और उसके बलिदान को मान लें कि बस, उनके पाप धुल जायेंगे। इस पलिम्थ ब्रदर ने मेरे प्रिटोरिया कै 'ब्रदर'की पहचान ताजा कर दी। जिस धर्म में नीति की चौकीदारी करनी पड़ती हो वह उसे नीरस मालूम हुई। इस मित्रता और अध्यात्मिक चर्चा की तह में था मेरा 'अन्नाहार में मांस क्यों नहीं खाता ? गो-मांस मैं क्या बुराई है ? वनस्पति की तरह क्या पशु-पक्षियों को भी ईश्वर मनुष्य आनंद तथा आहार के लिए नहीं बनाया है ? ऐसी प्रश्नमाला आध्यात्मिक वार्तालाप उत्पन्न किये बिना नहीं रह सकती थी।

पर हम दोनों एक-दूसरे को समझा सके। मैं अपने इस विचार पर दृढ़ हुआ कि धर्म और नीति एक ही लस्तु के वाचक हैं। इधर कप्तान को भी अपनी धारणा की सत्यता पर संदेह न था।

चौबीस दिन के अंत में यह आनंददायक यात्रा पूरी हुई, और मैं हुगलीका सौंदर्य निहारता हु कलकत्ता उतरा। उसी दिन मैने बंबई जाके लिए टिकट कटाया।