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अध्याय ५ : बाल-शिक्षण


कर्मी को अनुभव करते हैं ।

इतना होते हुए भी मेरा अपना यह मत है कि जो अनुभव-ज्ञान उन्हें मिला हैं, माता-पिता का जो सहवास वे प्राप्त कर सके हैं, स्वतंत्रता का जो पदार्थपाठ सीख पाये हैं--यह सब वे न प्राप्त कर सकते, यदि मैंने उनकी रुचि के अनुसार उन्हें स्कूल में भेजा होता । उनके संबंध में जितना निश्चिन्त मैं आज हूं, उतना न हुआ होता और जो सादगी और सेवा-भाव आज उनके अंदर दिखाई देता है उसे वे न सीख पाते यदि मुझसे अलग रहकर विलायत में अथवा अफ्रीका में कृत्रिम शिक्षा उन्होंने पाई होती । बल्कि उनकी कृत्रिम रहन-सहन शायद मेरे देशकार्य में भी बाधक हो जाती ।

इस कारण, यध्यपि में जितना चाहता था उतना अक्षर-ज्ञान उन्हें न दे सका, तथापि जब मै अपने पिछले वर्षों का विचार करता हूं तो मुझे यह नहीं लगता कि मैंने उनके प्रति अपने धर्म का यथा-शक्ति पालन नहीं किया और न मुझे इस बात पर पश्चाताप ही होता हैं; बल्कि इसके विपरीत जब मैं अपने बड़े लड़के के दुःखद परिणाम देखता हूं तो मुझे बार-बार यह मालूम होता है कि वह मेरे अध कचरे पूर्व काल की प्रतिध्वनि हैं । वह मेरा एक तरह से मूर्च्छा-काल, वैभव काल था और उस समय उसकी उम्र इतनी थी कि उसे उसका स्मरण रह सकता था । अब वह कैसे मानेगा कि वह मेरा मूर्च्छा-काल था ? वह यह क्यों न मानेगा कि वह तो मेरा ज्ञान-काल था और बाद के ये परिवर्तन अनुचित और मोह-जन्य हैं ? वह क्यों न माने कि उस समय मैं जगत के राजमार्ग पर चल रहा था और इसलिए सुरक्षित था और उसके बाद किये परिवर्तन मेरे सूक्ष्म अभिमान और अज्ञान के चिह्न हैं ? यदि मेरे पुत्र बैरिस्टर इत्यादि पदवी पाये होते तो क्या बुरा था ? मुझे उनके पंख काटने का क्या अधिकार था ? मैंने उन्हें क्यों न ऐसी स्थिति में रक्खा, जिससे वे अपनी रुचि के अनुसार जीवन-मार्ग पसंद करते ? ऐसी दलीलें मेरे कितने ही मित्रों ने मेरे सामने पेश की हैं ।

पर मुझे इनमें जोर नहीं मालूम देता । अनेक विध्यार्थियों से मेरा साब का पड़ा हैं । दूसरे बालकों पर दूसरे प्रयोग भी मैंने किये हैं अथवा करने में सहायक हुआ हूं। उनके परिणाम भी मैंने देखे हैं । वे बालक और मेरे लड़के आज एक उम्र के है । पर मै नहि मानता कि वे मेरे लड़कों से मनुष्य्त्व में बढ़े-चढ़े है अथवा