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आत्म-कथा : भाग ३


मेरे लड़के उनसे बहुत-कुछ सीख सकते हैं ।

फिर भी मेरे प्रयोग का अंतिम परिणाम तो भविष्य ही बता सकता है । इस विषय की चर्चा यहां करने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य-जाति की उत्क्रांतिका का अध्ययन करने वाला मनुष्य इस बात का कुछ-कुछ अंदाज कर सके कि गृह-शिक्षा और स्कूल-शिक्षा के भेद का और अपने जीवन में किये माता-पिता के परिवर्तनों का बच्चों पर क्या असर होता है ।

इसके अलावा इस प्रकरण का यह भी तात्पर्य हैं कि सत्य का पुजारी देख सके कि सत्य की आराधना उसे किस हदतक ले जा सकती है और स्वतंत्रता देवी का उपासक यह देख सके कि वह कितना बलिदान मांगती है । हां, बालकों को अपने साथ रखते हुए भी उन्हें अक्षर-ज्ञान दिला सकता था, यदि मैंने आत्मसम्मान छोड़ दिया होता, यदि मैंने इस विचार को कि जो शिक्षा दूसरे हिंदुस्तानी बालकों को नहीं मिल सकती वह मुझे अपने बच्चों को दिलाने की इच्छा न करनी चाहिए, अपने हृदय में स्थान न दिया होता । पर उस अवस्था में वे स्वतंत्रता और आत्मसम्मान का वह पदार्थ-पाठ न सीख पाते, जो आज सीख सके हैं। और जहां स्वतंत्रता और अक्षर-ज्ञान इनमें से किसी एक को पसंद करने का सवाल हो, वहां कौन कह सकता हैं कि स्वतंत्रता अक्षर-ज्ञान से हजार-गुना अच्छी नहीं है ?

१९२० में मैंने जिन नवयुवकों को स्वतंत्रता-घातक स्कूलों और कालेजों को छोड़ देने का निमंत्रण दिया और जिनसे मैंने कहा कि स्वतंत्रता के लिए निरक्षर रहकर सड़कों पर गिट्टी फोड़ना बेहतर हैं, बनिस्बत इसके कि गुलामी में रहकर अक्षर-ज्ञान प्राप्त करें, वे शायद अब मेरे इस कथन का मूल स्रोत देख सकेंगे ।


सेवा-भाव

मेरा काम यध्यपि ठीक चल रहा था, फिर भी मुझे उससे संतोष न था । मन में ऐसा मंथन चलता ही रहता था कि जीवन में अधिक सादगी आनि चाहिए और कुछ-न-कुछ शारीरिक सेवा-कार्य होना चाहिए ।

संयोग से एक दिन एक अपंग कोढ़ी घर आ पहुंचा । उसे कुछ खाने को