पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२२
आत्म-कथा : भाग ३

रह जागकर काटी। कमरेमें यहां से वहां टहलता रहा । परंतु गुत्थी किसी तरह सुलझती न थी । सैकड़ों रुपयोंकी भेंटें न लेना भारी पड़ रहा था; पर ले लेना उसमें भी भारी मालूम होता था ।

मैं चाहे इन भेंटको पचा भी सकता; पर मेरे बालक और पत्नी ? उन्हें तालीम तो सेवाकी मिल रही थी । सेवाका दाम नहीं लिया जा सकता था, यह हमेशा समझाया जाता था । घरमें कीमती जेवर आदि में नहीं रखता था । सादगी बढ़ती जाती थी । ऐसी अवस्थामें सोनेकी घड़ियां कौन रक्खेगा ? सोनेकी कंठीं और हीरेकी अंगूठियां कौन पहनेगा ? गहनोंका मोह छोड़नेके लिए में उस समय भी औरोंसे कहता रहता था। अब इन गहनों और जवाहरातको लेकर मैं क्या करूंगा ?

मैं इस निर्णय पर पहुंचा कि ये चीजें मैं हरगिज नहीं रख सकता । पारसी रुस्तमजी इत्यादि को इन गहनोंके ट्रस्टी बनाकर उनके नाम एक चिट्ठी तैयार की और सुबह स्त्री-पुत्रादिसे सलाह करके अपना बोझ हलका करनेका निश्चय किया ।

मैं जानता था कि धर्मपत्नीको समझाना मुश्किल पड़ेगा । मुझे विश्वास था कि बालकको समझानेमें जरा भी दिक्कत पेश न आवेगी, अतएव उन्हें वकील बनाने का विचार किया ।

बच्चे तो तुरंत समझ गये । वे बोले, “ हमें इन गहनोंसे कुछ मतलब नहीं; ये सब चीजें हमें लौटा देनी चाहिए और यदि जरूरत होगी तो क्या मैं खुद नहीं बना सकेंगे ?”

में प्रसन्न हुआ । “तों तुम बा को समझाओगे न ? मैंने पूछा ।

“जरूर-जरूर। वह कहां इन गहनोंको पहनने चली है ? वह रखना चाहेगी भी तो हमारे ही लिए न ? पर जब हमें ही इनकी जरूरत नहीं है जब फिर वह क्यों जिद करने लगीं ?”

परंतु काम अंदाजसे ज्यादा मुश्किल साबित हुआ ।

“तुम्हें चाहे जरूरत न हो और लड़कोंको भी न हो। बच्चोंको क्या ? जैसा समझादे समझ जाते हैं। मुझे न पहनने दो; पर मेरी बहुओंको तो जरूरत होगी? और कौन कह सकता है कि कल क्या होगा ? जो चीजें लोगोंने इतने