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अध्याय ६ : निरामिषाहारकी वेदीपर २६७

पर हमारा मिलाप ईश्वरको मंजूर न था ।

अपने पुत्रोंके लिए जो इच्छा उन्होंने प्रदर्शित की थी वह भी पूरी न हुई । भाई साहबने देशमें ही अपना शरीर छोड़ा था । लड़कोंपर उनके पूर्वजीवनका असर पड़ चुका था । उनके संस्कारोंमें परिवर्तन न हो पाया । मैं उन्हें अपने पास न खींच सका । इसमें उनका दोष नहीं है। स्वभावको कौन बदल सकता हैं ? बलवान संस्कारोंको कौन मिटा सकता है ? हम अक्सर यह मानते हैं कि जिस तरह हमारे विचारोंमें परिवर्तन हो जाता है, हमारा विकास हो जाता है, उसी तरह हमारे आश्रित लोगों या साथियोंमें भी हो जाना चाहिए; पर यह मिथ्या है । माता-पिता होनेवालोंकी जिम्मेदारी कितनी भयंकर है, यह बात इस उदाहरणसे कुछ समझमें आ सकती है । ६ निरामिषाहारकी वेदीपर जीवनमें ज्यों-ज्यों त्याग और सादगी बढ़ती गई और धर्म-जागृतिकी वृद्धि होती गई; त्यों-त्यों निरामिषाहारका और उसके प्रचारका शौक बढ़ता गया । प्रचार मैं एक ही तरहसे करना जानता हूं--आचारके द्वारा और आचारके साथ-ही-साथ जिज्ञासुके साथ वार्तालाप करके । जोहान्सबर्गमें एक निरामिषाहारी-गृह था । उसका संचालक एक जमेन था, जोकि कूनेकी जलचिकित्साका कायल था । मैंने वहां जाना शुरू किया और जितने अंग्रेज मित्रोंको वहां ले जा सकता था, ले जाता था; परंतु मैंने देखा कि यह भोजनालय बहुत दिनों तक नहीं चल सकेगा; क्योंकि रुपये-पैसेकी तंगी उसमें रहा ही करती थी । जितना मुझे वाजिब मालूम हुआ, मैंने उसमें मदद दी । कुछ गंवाया भी । अंतको यह बंद हो गया । थियॉसफिस्ट बहुतेरे निरामिपाहारी होते हैं; कोई पूरे और कोई अधूरे । इस मंडलमें एक बहन साहसी थी । उसने बड़े पैमानेपर एक निरामिष-भोजनालय खोला । यह बहन कला-रसिक थी, शाहखर्च थी, और हिसाब-किताबका भी बहुत खयाल न रखती थी । उसके