पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२८८

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२६८ -कृथा : भाग ४ मित्र-मंडलकी संख्या अच्छी कही जा सकती थी। पहले तो उसका काम छोटे पैमाने पर शुरू हुआ; परंतु बादको उसने बढ़ानेका और बड़ी जगह ले जानेका निश्चय किया । इस काम उसने मेरी सहायता चाही' ! उस समय उसके हिसाबकिताबकी हालतका मुझे कुछ पता न था । मैंने मान लिया कि उसके हिसाब अौर अटकलमें कोई भूल न होग' ! मेरे पास रुपये-पैसेकी सुविधा रहती थी । बहतरे सवक्किलोंके रुपये मेरे पास रहते थे। उनमें से एक सज्जनकी इजाजत लेकर लगभग एक हजार पौंड मैने उसे दे दिया। यह मवविकल बड़े उदार-हृदय और विश्वासशील थे। वह पहले-पहल गिरमिट आये थे । उन्होंने कहा---- “भाई, आपका दिल चाहे तो पैसे दे दो। मैं कुछ नहीं जानता । मैं तो आप हीको जानता हूं ।' उनका नाम था बदरी । उन्होंने सत्याग्रहमें बहुत योग दिया था । जेल भी काटी थी। इतनी’ सम्मति पाकर ही मैंने उसमें रुपये ला दिये । दोतीन महीने में ही मैं जान गया कि ये रुपये वापस आनेवाले नहीं हैं। इतनी बड़ी रकम खो देने का सामर्थ्य मुझमें न था। मैं इस रकमको दूसरे काममें लगा सकता था। बह रकम आखिर उसी में डूब गई; परंतु मैं इस बातको कैसे गवारा कर सकता था कि उस विश्वासी बदरीका रुपया चला जाय ? वह तो मुझको ही पहचानता था । अपने पाससे मैंने यह रक्कम भर दी । एक भवक्किल मित्रसे मैंने रुपयेकी बात की। उन्होंने मुझे मीठा उलाहना देकर सचेत किया--- “भाई, (दक्षिण अफ्रीका में मैं ‘महात्मा' नहीं बन गया था और न ‘बापू ही बना था, मवक्किल मित्र मुझे 'भाई' से ही संबोधन करते थे ।) आपको ऐसे झगड़ोंमें न पड़ना चाहिए । हम तो ठहरे आपके विश्वासपर चलने वाले । ये रुपये अापको वापस नहीं मिलनेके । बदरीको तो आप बचालोगे; पर आपकी रकम अट्टे-खाते समझिए । पर ऐसे सुधारके कामोंमें यदि आप मवक्किलोंका रुपया लगाने लगेंगे तो भवक्किल बेचारे पिस जायंगे और आप भिखारी बनकर घर बैठ रहेंगे। इससे आपके सार्वजनिक कामको भी धक्का पहुंचेगा ।” | सद्भाग्यसे यह मित्र अभी मौजूद हैं। दक्षिण अफ्रीका तथा दूसरी जगह इनसे अधिक स्वच्छ आदमी' मैंने दूसरा नहीं देखा । किसी के प्रति यदि उनके मनमें संदेड उत्पन्न होता और बादको उन्हें मालूम हो जाता कि वह बे