पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२९७

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अध्याय १० : एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित्त २७७ ॐ । ऐसा बर्ताव करता है। स्वभाव ही बन गया है, इसका ज्ञान मुझे उस समय न था । ऐसा बताद सत्याग्रहकी नई है, यह अहिंसा का ही एक अंग-विन है, यद् ती ६ बादक समझ पाया है ! मनुष्य और उसका काम ये दे जुदा चीजें हैं। अच्छे कामके प्रति मनमें दर और बुरेके प्रति तिरस्कार अवश्य ही होना चाहिए; पर अच्छे-बुरे काम करने के प्रति हमेशा बन अादर अथवा ब्याका भाव होना चाहिए। यह बात समझ में तो बड़ी रार है। लेकिन उनके अनुसार बहुत ही कम होता है। इससे जगत्में हम इतना जहर फैला हुआ देखते हैं । सत्यकी खोज मलमें ऐसी अहिंसा व्याप्त है । यह मैं प्रतिक्षा अनुभव करता हूं कि जबतक यह अहिंसा हाथ न लगी तबतक सत्य हाथ नहीं आ मुकता । किसी तंत्र या प्रणालीका विरोध तो अच्छा है; लेकिन उसके संचालकका विरोध करना नानो खुद अपना ही विरोध करना है । कारण यह है कि हम सबकी सृष्टि एक ही कूची के द्वारा हुई हैं। हम सब एक ही ब्रह्मदेवकी प्रजा है । संचालक अर्थात् उस व्यक्तिके अंदर तो अनंत शक्ति भरी हुई है। इसलिए यदि हम उसका अनादर--तिरस्कार करेंगे तो उसकी शक्तियोंका, गुणोंका भी अनादर होगा। ऐसा करने से तो उस संचालककों एवं प्रकारांतरले सारे जगत्को हानि पहुंचेगी ।। एक पुण्यस्मरा और प्रायश्चित्त मेरे जीवन ऐसी अनेक घटनाएं होती रहीं हैं, जिनके कारण में विविध धमियों तथा जातियोंके निकट परिचयमें आ सका हूँ । इन सब अनुभवोंपरसे अह कह सकते हैं कि मैंने घरके या बाहर, देशी या विदेशी, हिंदू या मुसलमान तथा ईसाई, पारसी या यहूदियोंसे भेद-भावका रयाल तक नहीं किया। मैं कह सकता हूं कि मेरा हृदय इस प्रकारके भेद-भावको जानता ही नहीं। इसको मैं अपना एक गुण नहीं मानता हूं; क्योंकि जिस प्रकार अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहादि