पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२९९

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अध्याय १० : एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित । ३७६ केह-" तो लो, रखों यह अपना घर ! में बली ! उस समय में ईश्वरको भूल गया था। दयाका लेशमात्र मेरे हृदय न रह गया था। मैंने उपका हाथ पकड़ा । दीढ़ी के सामने ही बाहर जाने दरा था। मैं उस दी अबला इथे पकड़कर दरवाजेतक खींचकर ले गया । दरवाजा खोला होगा कि वो गा-जमुना बहाती हुई कन्नूर राई बोली । “तुम्हें तो कुछ शरय हैं नहीं; पर मुझे हैं। जरा तो नजामैं बहर निकलकर अाखिर जाऊँ कहाँ ? -दाय भी यहां नहीं कि उनके पार बन जाऊं। मैं ठहरी स्त्र-जूति । इसलिए मुझे तुम्हारी बस सहन ही पड़ेगी ! अब जरा शरम करो और दरवाजा बंद कर लो----कोई देख ले तो दोनों की फजीहत होगी ।' मैंने अपना चेहरा तो सुर्ख बनाये रखा; पर मनमें शरमा जरूर आयो । दरवाजा बंद कर दिया। जवकि पत्नी भुझे छोड़ नहीं सकती थी तब मैं भी उसे छोड़कर कहां जा सकता था ? इस तरह हमारे अपने लड़ाई-झगड़े कई बार हुए हैं। परंतु उनका परिणाम सदा अच्छा ही निकला है। उनमें पत्नी ने अपनी अद्भुत सहनशीलता के द्वारा मुझपर विजय प्राप्त की है। ये घटनाएं हमारे पूर्व-युगकी हैं, इसलिए उनका वर्णन मैं आज अलिप्तभावसे करता हूँ। आज मैं तत्रकी तरह मोहांध पति नहीं हूं, न उसका शिक्षक ही हूं । यदि चाहें तो कस्तुरबाई आज मुझे धमका सकती हैं । हम आज एकदुसरेके भुक्तभोगी मित्र हैं, एक-दूसरेके प्रति निर्विकार रहकर जीवन बिता रहे हैं। कस्तुरवाई आज ऐसी सेविका बन गई हैं, जो मेरी बीमारियां बिना प्रतिफलकी इच्छा किये सेवा-शुश्रूषा करती हैं । यह घटना १८९८की है । उस समय मुझे ब्रह्मचर्य-पालनके विषयों कुछ ज्ञान न था । वह समय ऐसा था जबकि मुझे इस बात का स्पष्ट ज्ञान न था कि पत्नी को कैथल सहर्धामणी, सहचारिणी और सुख-दुःखको थिन हैं । मैं यह समझकर बरताव करता था कि पत्नी विषय-भोगकी भाजद हैं, उसका जन्म पतिकी हर तरहकी आज्ञाका पालन करनेके लिए हुआ है ।। किंतु १९०० ई०से मेरे इन विचारोंमें गहरा परिवर्तन हुअा । १९०६मैं उसका परिणाम प्रकट हुन्न । परंतु इसका वर्णन असे प्रसंग मानेपर होगा ।