पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३०८

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३८* -क । भइ ४ अनुभव किया कि उनके द्वारा भारतीयोंकी सेवा नहीं हो रही थी । इन विभागों को कायम रखने में मुझे झूठा आश्रय लेने का आभास हुआ——इस कारण उन्हें बंद करके शांति प्राप्त की ।। मुझे यह खयाल न था कि इस अखबार में मुझे रुपया भी लाना पड़ेगा; परंतु थोड़े ही अरसे बाद मैंने देखा कि यदि मैं उसमें रुपया नहीं लेता हूं तो वह बिलकुल चल ही नहीं सकता था । यद्यपि उसका संपादक मैं न था फिर भी भारतीय र गोरे सद लोग इस बात को जान गये थे कि उसके लेख की जिम्मेदारी मुझपर हैं। फिर अगर अखबार नहीं निकला होता तो एक बात थी; पर निकल चुकने के बाद उसके बंद होनेसे सारे भारतीय समाजकी बदनामी होती थी और उसे हानि पहुंचनेको भी पूरा भय था । इसलिए मैं उसमें रुपये लगाता गया और अंतको यहांतक नौबत आ गई कि मेरे पास जो कुछ बच जाता था सब उसके अर्पण होत था। ऐसा भी समय अझे याद है जब उसमें प्रति मास ७५ पौंड मझे भेजना पड़ता था। परंतु इतन्नो अरसा हो जाने के बाद मझे प्रतीत होता है कि इस अखबार के द्वारा भारतीय समाजकी अच्छी सेवा हुई है। उसके द्वारा धन उपार्जन करनेका त इरादा से ही किसीका ३ था ।। जबतक उसका सूत्र मेरे हाथमें था तबतक उसमें जो कुछ परिवर्तन हुए मैं मेरे जीवनकै परिवर्तनोंके सूचक थे। जिस प्रकार अजि. 'यंग इंडिया' और नवजीवन' मेरे जीवन के कितने अंशका निचोड़ हैं उस प्रकार 'इंडियन प्रोपनियन' भी था । उसमें में प्रति सप्ताह अपनी आत्माको उड़ेलता और उस चीजको समझाने का प्रत्न करत' जिसे मैं सत्याग्रहके नाम से पहचानता था । जेल के दिनोंको छोड़कर दस वर्षतक अर्थात् १९१४तकके ‘इंडियन ओपीनियनका शायद ही कोई अंक ऐसा गया हो जिसमें मैंने एक भी शब्द बिनः विचारे, बिना तौले लिखा हो अथवा महज़ किसीको खुश करने के लिए लिखा हो या जान-बूझकर अत्युक्ति की हो । यह अखवार मेरे लिए संयमकी तालीमका काम देता था, मित्रोंके लिए मेरे विचार जाननेक साधन हो गया था और टीकाकारोंको उसमेंसे टीका करने की सामग्री बहुत थोड़ी मिल सकती थी। मैं जानता हूं कि उसके लेखोंकी बदौलत टीकाकारोंको अपनी कलमपर अंकुश रखना पड़ता था । यदि यह् अखबार न होता तो सत्याग्नहु-संझाम न चल सकता । पाठक इसे अपना