पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३४३

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अध्याय २५ : हृदय-मंथन ३२३ कि इतनेमें कोई यह अफवाह लाया कि बलवा' शान्त हो गया है और अब हमें छुट्टी मिल जायगी । दूसरे ही दिन हमें घर जानेका हुक्म हुश्रा और थोड़े ही दिनों बाद हम सब अपने-अपने घर पहुंच गये । इसके कुछ ही दिन बाद गवर्नरने इस सेवाके निमित्त मेरे नाम धन्यवाद का एक खास पत्र भेजा ! फैिनिक्समें पहुंचकर मैंने ब्रह्मचर्य-विषयक अपने विचार बड़ी तत्परतासे छगनलाल, मगनलाल, वेस्ट इत्यादिके सामने रक्खे । सबकी वे पसंद श्रार्थे । सवने ब्रह्मचर्यकी आवश्यकता समझी । परंतु सबको उसका पालन बड़ा कठिन मालूम हुश्रा । कितनोंने ही प्रयत्न करनेका साहस भी किया और मैं मानता हूं कि कुछ तो उसमें अवश्य सफल हुए हैं । मैंने तो उसी समय व्रत ले लिया कि श्राजसे जीवन-पर्यंत ब्रह्मचर्यका पालन करूंगा । इस व्रतका महत्त्व और उसकी कठिनता मैं उस समय पूरी न समझ सका था । कठिनाइयोंका अनुभव तो मै श्राज तक भी करता रहता हूं । साथ ही उस व्रतका महत्त्व भी दिन-दिन अधिकाधिक समझता जाता हूं । ब्रह्मचर्यहीन जीवन मुझे शुष्क और पशुवत् मालूम होता है । पशु-स्वभावतः निरंकुश है, मनुष्यका मनुष्यत्व इसी बातमें है कि वह स्वेच्छासे श्रपनेको अंकुशमें रक्खे । ब्रह्मचर्यको जो स्तुति धर्मग्रंथोंमें की गई है उसमें पहले मुझे अत्युक्ति मालूम होती थी । परंतु अब दिन-दिन वह अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि वह बहुत ही उचित और अनुभव-सिद्ध हैं । वह ब्रह्मचर्य जिसके ऐसे महान् फल प्रकट होते हैं, कोई हंसी-खेल नहीं केवल शारीरिक वस्तु नहीं है । शारीरिक अंकुशसे तो ब्रह्मचर्यका श्रीगणेश होता है । परंतु शुद्ध ब्रह्मचर्यमें तो विचार तककी मलिनता न होनी चाहिए । पूर्ण ब्रह्मचारी स्वप्नमें भी बुरे विचार नहीं करता । जबतक बुरे सपने श्राया करते हैं, स्वप्नमें भी बिकार-प्रबल होता रहता है तबतक यह मानना चाहिए कि अभी ब्रह्मचर्य बहुत अपूर्ण है । - मुझे तो कायिक ब्रह्मचर्यके पालनमें भी महाकष्ट सहना पड़ा । इस समय तो यह कह सकता हूं कि में इसके विषयमें निर्भय हो गया हूं; परंतु अपने विचारोंपर अभी पूर्ण विजय प्राप्त नहीं कर सका हूं । मैं नहीं समझता कि