पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४०१

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-कैथई : भाग ५ गरम मालूम हुआ, इसलिए उसने हुक्म दिया कि राजकोट जाकर डाक्टरसे मिलो और मेरा नाम लिख लिया ।। बंबईसे शायद किसीने तार या चिट्ठी भेज दी होगी, इस कारण बढवाण स्टेशनपर दर्जी मोतीलाल, जो वहांके एक प्रसिद्ध प्रजा-सेवक माने जाते थे, मुझसे मिलने आये। उन्होंने मुझसे वीरमगामकी जकातकी जांचको तथा उसके संबंधमें होनेवाली तकलीफोंका जिक्र किया। मुझे बुखार चढ़ रहा था, इसलिए बात करनेकी इच्छा कम ही थी। मैंने उन्हें थोड़े में ही उत्तर दिया-- | " आप जेल जाने के लिए तैयार हैं ? " इस समय मैंने मोतीलालको वैसा ही एक युवक समझा, जो बिना विचारे उत्साहमें ‘हां कर लेते हैं, परंतु उन्होंने बड़ी दृढ़ताके साथ उत्तर दिया-- | "हां, जरूर जेल जायंगे; पर अपको हमारा अगुआ बनना पड़ेगा । काठियावाड़ीकी हैसियतसे आपपर हमारा पहला हक है। अभी तो हम आपको नहीं रोक सकते, परंतु वापस लौटते समय आपको बढवाण जरूर उतरना पड़ेगा । यहांके युवकों का काम और उत्साह देखकर आप खुश होंगे । आप जब चाहें तब अपनी सेनामें हमें भरती कर सकेंगे ।" - उस दिनसे मोतीलालपर मेरी नजर ठहर गई। उनके साथियोंने उनकी स्तुति करते हुए कहा-- “यह भाई दर्जी हैं। पर अपने हुनर में बड़े तेज हैं । रोज एक घंटा काम करके, प्रतिमासे कोई पंद्रह रुपये अपने खर्चके लायक पैदा कर लेते हैं; शेष सारा समय सार्वजनिक सेवामें लगाते हैं और हम सब पढ़े-लिखे लोगोंको राह दिखाते हैं और शमंदा करते हैं।' बादको भाई मोतीलालसे मेरा बहुत साबको पड़ा था और मैंने देखा कि उनकी इस स्तुतिमें अत्युक्ति न थी। सत्याग्न-प्रश्रमकी स्थापनाके बाद वह हर महीने कुछ दिन आकर वहां रह जाते। बच्चोंको सीना सिखाते और आश्चममें सीनेका काम भी कर जाते । वीरमगामकी कुछ-न-कुछ बातें बह रोज सुनाते । मुसाफिरोंको उससे जो कष्ट होते थे बह इन्हें नागवार हो रहे थे । इन मोतीलालको बीमा भर-जवानीमें ही खा गई और बवाण उनके विना सूना हो गया । राजकोट पहुंचते ही मैं दूसरे दिन सुबह पूर्वोक्त हुक्मके अनुसार अस्पताल