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૪૪૬ आत्म-कथा;भाग ५

उसने देख लिया कि हमारी शक्ति के अनुपात से हमें ग्रधिक मिला है और आगे के लिए राजनैतिक कष्टोंके निवारण का एक मार्ग हमें मिल गया है, उनके उत्साहके लिए इतना ज्ञान काफी था । -

   किंतु खेड़ा की प्रजा सत्याग्रह का स्वरूप पूरा नहीं समझ सकी थी, इसलिए उसे कैसे कड़वे अनुभव हुए सो हम आगे चलकर देखेंगे ।
                      
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                 ऐक्यके प्रयत्न

जिस समय खेड़ा का आंदोलन जारी था, उसी समय यूरोपका महासमर भी चल रहा था । उसके सिलसिले में वाइसरोय दिल्ली में नेताओं को बुलवाया था । मुझे भी उसमें हाजिर रहने का आग्रह किया था। मैं यह पहले ही लिख चुका हुँ कि लार्ड चेम्सफोर्ड के साथ मेरा मैत्री-संबंध था ।

      मैंने आमंत्रण मंजूर किया और दिल्ली गया; किंतु इस सभा में शामिल होने में मुझे एक संकोच था । इसका मख्य कारण यह था कि उसमें अली भाइयों, लोकमान्य तथा दूसरे नेताओं को नहीं बुलाया गया था । उस समय अली भाई जेल में थे । उनसे में एक-दो बार ही मिला था, सुना उनके बारे में बहुत-कुछ था । उनके सेवाभाव और बहादुरी की स्तुति सभी कोई किया करते थे । हकीम साहब के साथ भी मेरा परिचय नहीं हुआ था । स्व० आचार्य रुद्र और दीनबंधु एंड्रूज के मुँह से उनकी बहुत प्रशंसा सुनी थी । कलकत्तावाले मुस्लिमलीग के अधिवेशन में श्वेब कुरेशी और बैरिस्टर ख्वाजा से मेरी मुलाकात हुई थी । डाक्टर अंसारी और डाक्टर अब्दुर्रहमान से भी परिचय हो चुका था । भले मुसलमानों की सोह्वत मैं ढूंढ़ता रहता था और उनमें जो पवित्र तथा देशभक्त समझे जाते थे, उनके संपर्क में आकर उनकी भावनायें जानने की मुझे तीव्र इच्छा रहती थी । इसलिए मुझे वे अपने समाजमें जहां कहीं ले जाते, मैं बिना कोई खीचा-तानी कराये ही चला जाता था । यह तो मैं दक्षिण अफ्रीका में ही समझ चुका था कि हिंदुस्तान के हिन्दू-मुसलमानों में सच्चा मित्राचार नहीं है । दोनों के मनमुटाव को मिटाने का एक भी मौका में यों ही जाने नहीं देता था। झूठी खुशामद