पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/५१६

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अध्याय ४२ : असहयोगका प्रवाह तो चल ही रहा था । स्वर्गीय मौलाना अब्दुल बारी वगैरा उलेमाशोंके साथ इस विषयमें खूब बहस हुई है। इस बारेमें खास तौरपर तरह-तरहसे विचार होते रहे कि मुसलमान शांति और अहिंसाका किस हद तक पालन कर सकते हैं और आखिर यह फैसला हुआ कि एक हदतक बतौर एक नीतिके उसका पालन करनेमें कोई हर्ज नहीं और यह भी तय हुआ कि जो एक बार अहिंसा की प्रतिज्ञा ले ले, वह सचाईसे उसका पालन करने के लिए बंधा है । आखिर असहयोगका प्रस्ताव खिलाफत कन्फ्रेन्समें पेश किया गया और लंबी बहसके बाद वह पास हुआ । मुझे याद है कि एक बार उसके लिए इलाहाबाद सारी रात सभा होती रही । शुरू-शुरूमें स्व० हकीम साहब को शांतिपूर्ण असहयोगकी शक्यता के संबंधों शंका थी, लेकिन उनकी शंका दूर हो जाने पर वह उसमें शामिल हो गये और उनकी मदद बहुत कीमती साबित हुई|

इसके बाद गुजरातमें राजनैतिक परिषद्की बैठक हुई। इस परिषद् मैंने असहयोगका प्रस्ताव रक्खा । परिषदमें प्रस्तावका विरोध करनेवालेकी पहली दलील यह थी कि जबतक कांग्रेस असहयोगका प्रस्ताव पास नहीं करती है तबतक प्रांतीय परिषदको उसके पास करने का अधिकार नहीं । मैंने जवाबमें कहा कि प्रांतीय-परिषदें पीछे पैर नहीं हटा सकतीं; लेकिन आगे कदम बढ़ानेका अधिकार तो तमाम अधीन संस्थाको है; यही नहीं, बल्कि अगर उनमें हिम्मत हो तो ऐसा करना उनका धर्म भी है। इससे तो प्रधान संस्थाका गौरव बढ़ता है। इसके बाद प्रस्तावके गुणदोषोंपर भी अच्छी और मीठी बहस हुई। फिर मत लिये गए और बड़े बहुमतसे असहयोगका प्रस्ताव भी पास हो गया। इस प्रस्तावके पास होने में अब्बास तैयबजी और वल्लभभाईका बहुत बड़ा हिस्सा था। अब्बास साहव अध्यक्ष थे और उनका झुकाव असहयोग प्रस्तावकी ओर ही था ।

महासमितिने इस प्रश्नपर विचार करनेके लिए कांग्रेसकी एक खास वैठक १९२०के सितंबर महीनेमें बुलानेका निश्चय किया । बहुत बड़े पैमानेपर तैयारियां हुई। लाला लापतराय अध्यक्ष चुने गये । बंबईसे खिलाफत और कांग्रेस स्पेशले छूटीं । कलकत्तेमें सदस्यों और दर्शकोंका बहुत बड़ा समुदाय इकट्ठा हुआ ।

मौलाना शौकतअलीके कहनेपर मैंने असहयोगके प्रस्तावका मसविदा