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श्रीचन्द्रावली

कामिनी― पर तुझको तो बटेकृष्ण का अवलम्ब है न, फिर तुझे क्या, भॉडीर वट के पास उस दिन खड़ी बात कर ही रही थी, गए हम―

माधुरी―और चन्द्रावली?

कामिनी―हाँ चन्द्रावली बिचारी तो आप द्दी गई बीती है, उसमें भी अब तो पहरे में है, नजरबंद रहती है, झलक भी नहीं देखने पाती, अब क्या―

माधुरी―जान दे नित्य का झखना। देख, फिर पुरवैया झकोरने लगी और वृक्षों से लपटी लताएँ फिर से गरजने लगी। साड़ियों के आँचल और दामन फिर उड़ने लगे और मोर लोगों ने एक साथ फिर शोर किया। देख यह घटा अभी गरज गई थी पर फिर गरजने लगी।

कामिनी―सखी बसंत का ठढा पवन और सरद की चाँदनी से राम राम करके वियोगियों के प्राण बच भी सकते हैं, पर इन काली-काली घटा और पुरवैया के झोंको तथा पानी के एकतार झमाके से तो कोइ भी न बचेगा।

माधुरी―तिसमे तू तो कामिनी ठहरी, तू बचना क्या जाने।

कामिनी―चल ठठोलिन। तेरी आँखों में अभी तक उस दिन की खुमारी भरी है, इसी से किसी को कुछ नहीं समझती। तेरे सिर बीते तो मालूम पडे़।

माधुरी― बीती है मेरे सिर। मैं ऐसी कच्ची नहीं कि थोडे़ में बहुत उबल पड़ूँ।

कामिनी― चल, तू हई है क्या कि न उबल पड़ेगी। स्त्री की बिसात ही कितनी बड़े-बड़े जोगियों के ध्यान इस बरसात में छूट जाते है, कोई जोगी होने ही पर मन ही मन पछताते है, कोई जटा पटककर हाय हाय चिल्लाते हैं, और बहुतेरे तो तुमड़ी तोड़-तोड़कर जोगी से भोगी हो ही जाते हैं।

माधुरी― तो तू भी किसी सिद्ध से कान फुँँकवाकर तूमड़ी तुड़वा ले।

कामिनी― चल! तू कया जाने इस पीर को। सखी, यह भूमि और यही कदम कुछ दूसरे ही हो रहे हैं और यह दुष्ट बादल मन ही दूसरा किए देते हैं। तुझे प्रेम हो तब सूझे। इस आनंद की धुनि में संसार ही दूसरा एक विचित्र शोभावाला और सहज काम जगानेवाला मालूम पड़ता है।

माधुरी―कामिनी पर काम का दावा है। इसी से हेर-फेर उसी को बहुत छेड़ा करता है।

(नेपथ्य में बारम्बार मोर कूँकते हैं)

कामिनी― हाय-हाय! इस कठिन कुलाहल से बचने का उपाय एक विषपान ही है। इन दईमारों का कूकना और पुरवैया का झकझोर कर चलना यह दो बातें बड़ी कठिन हैं। धन्य हैं वे जो ऐसे समय में रंङ्ग-रंङ्ग के कपड़े पहिने ऊँची-ऊँची अटरियों पर चढ़ी पीतम के संग घटा और हरियाली देखती हैं