जिसमें पृथ्वी की सतह दिक् की अवधारणा के अमूर्त होने का आभाष देती है जिसका निश्चित रूप से बचाव नहीं किया जा सकता है। इस घातक त्रुटि से हमें स्वतंत्र करने के लिए हम केवल "निर्देश पिण्डों" (bodies of reference) या "निर्देश दिक्" (space of reference) की बात करेंगे। जैसा कि हम आगे देखेंगे, इन अवधारणाओं का परिष्करण केवल सामान्य आपेक्षिकता के माध्यम से आवश्यक हो जाता है।
मैं निर्देश दिक् के गुणधर्मों से सम्बंधित विस्तार में नहीं जाऊँगा जो दिक्-सांतत्य और दिक्-अल्पांश के को समझा सकता है। न ही मैं दिक् के उन गुणों का अधिक विश्लेषण करने का प्रयास करूँगा जो बिन्दुओं या रेखाओं की सतत श्रेणी की अवधारणा को उचित ठहराते हैं। यदि इन अवधारणाओं को आनुभाविक दृढ़ पिण्डों के साथ सम्बंध को देखते हुये माना जाये तब यह कहना आसान होता है कि हमारा आशय त्रिविम आकाश से है; किसी भी बिन्दू के लिए तीन संख्यायें (निर्देशांकों) से जोड़ा जा सकता है, यह इस तरह का सम्बद्ध पारस्परिक रूप से अद्वितीय होता है तथा सतत रूप से परिवर्तित होता है जब किसी सतत श्रेणी के बिन्दुओं (एक रेखा) का वर्णन किया जाता है।
आपेक्षिकता से पूर्व भौतिकी में माना जाता है कि आदर्श दृढ़ पिण्डों के अभिविन्यास के नियम यूक्लिडीन ज्यामिति के साथ एकरूप होते हैं। इसका अर्थ निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है: किसी दृढ़ पिण्ड पर चिह्नित दो बिन्दु एक अन्तराल का निर्माण करते हैं। इस तक का अन्तराल को हमारे दिक् निर्देश के सापेक्ष बहुक (विभिन्न) तरिकों से विराम अवस्था में अभिविन्यासित कर सकते हैं। यदि अब इन दिक् बिन्दुओं को निर्देशांको में इस तरह निरूपित करें कि अन्तराल के दोनों शीरों मध्य अन्तराल को निर्देशांक से लिखने पर अन्तराल के किसी भी अभिविन्यास के लिए इनके वर्ग का योग
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