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१३२ :: तुलसी चौरा
 


के विवाह को एक दिन में समेट रहे हैं। रजिस्टर्ड शादियाँ करवाने लगे हैं और यह पड़ी लिखी लड़की इतने पिछड़े विचार की है? मैंने भैय्या जी को छेड़ा था। तब बोले कि वह जिद कर रही अपने पिता से इसके लिये काफी पैसे मांग कर लायी है।'

'लोगों की बात जाने दो देशिकामणि। यह कामाक्षी ऐसा होने ही नहीं देगी।'

'उसका मन तो तुम्हें बदलना होगा। एक की जिद के लिये किसी की जिंदगी खराब करोगे?'

'वकील नोटिस का क्या करें?'

'धमका रहे हैं, साले। कचहरी में निपट लेंगे। तुम डरना मत।'

'वणुकाका के सुझाव की बात बताई।'

'अच्छा सुझाव है। तुम उत्तर मत देना। मामला अदालत में आने दो, देखते हैं।'

काफी देर तक बातें करते रहे। अंधेरा घिर आया था। इसलिये लौट आये। इरैमुडिमणि अपनी दुकान में रह गये। शर्मा जी का मन हल्का हो गया था। दोस्त से बातचीत के बाद तमाम चिताएं दूर होने लगी थीं। शर्मा जी घर लौटे तो पार्वती दीप जला रही थी। कामाक्षी शायद पड़ोस में गयी थी। पार्वती का श्लोक पाठ खत्म हो गया तो उसे बुलाया, 'पारू इधर बाना बिटिया।' एक जरूरी काम हैं। भगवान के आगे पर्ची डाल रहा हूँ। तुम ध्यान करके एक पर्ची निकालना।'

पार्वती ने वैसा ही किया। शर्मा जी ने पर्ची खोंली―उनका चेहरा खिल गया।

'बाऊ बात बनेगी या नहीं'

'बनी है, बिटिया।' उन्होंने पर्ची को आँखों से लगा लिया। किसी के सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज आयी। पार्वती ने बाहर झांक कर देखा।