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२८ :: तुलसी चौरा
 


लोगों का आना लगा रहता है।

'यार शर्मा, बस यही चालाकी तो नहीं रास आती। मेरी जरूरत के बारे में आपको प्रमाणपत्र देने की कोई आवश्यकता नहीं। मैं तो सुझाव दे रहा था, पर आप हैं कि सुन ही नहीं रहे।'

बसंती ने टोक कर कहा, 'अगर काकू को कोई आपत्ति न हो, तो कमली और रवि यही रह लेंगे। मुझे भी बम्बई लौटने में माह दो माह लगेंगे। तब तक कमली का साथ भी दे दूँगी। आप तो कर्म- कांडी आदमी हैं, और काकी भी नेम, अनुष्ठान छूतपात मानती हैं। बल्कि काकी तो इस मामले में आपसे भी दो हाथ आगे हैं। अब ऐसे में आने वाले भी परेशान हों, और आप भी…।'

शर्मा जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। पर काका ने बसंती के इस सुझाव की जी खोलकर तारीफ की।

'वाह, क्या सुझाव है? हमें क्यों नहीं सूझा? अच्छा है, वे लोग यहीं रह लेंगे। शर्मा के रुपये भी बच जायेंगे और मेहनत भी! क्यों शर्मा……?'

शर्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे सोच में डूबे हुए थे। बसंती ने झट एरोग्राम का लिफाफा उन्हें पकड़ा दिया।

'अब आप भूमिनाथपुरम के लिए निकलेंगे, कल डाक की छुट्टी है। एरोग्राम न खरीदेंगे, न लिखेंगे,। बस इसी में दो पंक्तियाँ लिख डालिए। मैं खुद डाल आती हूँ।'

उसका स्वर अनुरोध भरा था। पहले तो वे कुछ हिचकिचाए फिर उनका मन कुछ पिघल गया।

'पन हो, तो दे दो बिटिया। मैं तो लाया ही नहीं।'

वेणु काका ने झट कमीज की जेब से पेन निकाल लिया। शर्मा जी के भीतर का उफनता आक्रोश उनकी पंक्तियों में उतर आया। 'चि. रवि को आर्शीवाद तुम्हारा पत्र मिला। विज्ञापन रुकवा लिया है।