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७० :: तुलसी चौरा
 

शर्मा जी को देखकर इरैमुडिमणि स्वयं उठ आये।

'क्या हो गया विश्वेश्वर? अगर कहला दिया होता, तो हम ही बने आते। तुम काहे परेशान हो रहे हो?'

'यहाँ नदी की ओर आया था, तुम्हें भी देखने चला गया। इस जमीन के बारे में मठ का उत्तर आ गया।'

'क्या लिखा है?'

'लिखा है, कि किराया वक्त पर भरने वाला व्यक्ति हो…।'

'तो तुम्हें क्या लगता है? मैं भर सकता हूँ?' इरैमुडिमणि हँस पड़े।

'विश्वास का क्या है। फल आना तय कर लेंगे।' शर्मा जी चलने लगे तो उन्हें रोक कर इरैमुडिमणि बोले, 'कल आ जाऊँगा, वहीं तय कर लेंगे। एक मिनट ठहरो। एक जरूरी बात बतानी थी।'

'कहो।' शर्मा जी ने कहा। इरैमुडिमणि ने भीतर देखकर आवाज लगाई। मलरकोडि इधर आना, बिटिंया।'

काले रंग की सूती साड़ी पहने एक युवती बाहर निकल आयी। साँवला रंग था उसका, पर तीखे नाक नक्श थे।

'यह मलरकोडि है। यहीं के अंतोनी प्राथमिक पाठशाला में टीचर है। हमारे संगठन की सक्रिय कार्यकर्ता है अठारह साल पहले हमारे यहाँ जो सुधारवादी सम्मेलन हुआ था न, तब यह साल भर की रही होगी। इसका नाम नेता जी ने ही रखा था। खैर वह तो पुरानी बातें हैं। पर मैं जो कहना चाहता है, वह कोई दूसरी ही बात है। शाम को यह घर लौटती है तो सीमावय्यर की अमराई से होकर लौटना पड़ता है। एकाध दिन इससे छेड़छाड़ भी की थी। एक दिन तो इसका हाथ ही पकड़ लिया। तुम जरा उसे समझा देना। मैं सोचता हूँ, बात को बहुत आगे न बढ़ने दिया जाए। तुम समझा सको तो…।'

'देशिकामणि! वह तो गुंडा है। मेरे कहने पर वह सुधरने से रहा। गाँव का बड़ा आदमी है, पैसे वाला है। आज शाम को चार किसानों