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८८ :: तुलसी चौरा
 

की बात है। तुम्हें आपत्ति न हो, तो हमारे वाचनालय में एक दिन एक गोष्ठी कर दें। बेटा बहुत भाग्यशाली है। सुन्दर, बुद्धिमान और व्यवहार कुशल जीवन साथी मिलना बहुत भाग्य की बात है।'

'यह तो अब तय करना है कि जीवन साथी बनेगी भी या नहीं' शर्मा जी हँसते हुए बोले। पर इरैमुडिमणि ने नहीं छोड़ा। उसी समय उन्हें झिड़क दिया।

'किसी के जीवन साथी के बारे में तो उसे तय करना है कि दूसरे ही तय करेंगे?'

'पर व्यावहारिक जीवन में दूसरों के विचार भी तो महत्व रखते हैं। माँ बाप, घर समाज यह भी तो देखना पड़ता है?'

'बच्चे खुश रहें, बस काफी है! जाति, धर्म, कुल, गोत्र आदि भी बातें कहीं उनकी खुशियों को कहीं मार न दें।'

'देखते हैं।……और कुछ?'

'मैं चलता हूँ। उन लोगों से कह देना। फिर आऊँगा, फुर्सत में। मलरकोडि वाले मामले में सीमावय्यर को जरा चेता देना। भूलना मत।' इरैमुडिमणि ने कहा।

इरैमुडिमणि अभी गली के मोड़ तक ही गए होंगे कि शर्मा जी में अहमद अली भाई और सीमावय्यर को पश्चिमी दिशा से आते देखा।

भीतर जाते-जाते ओसारे पर ही रुक गए। इससे पहले कि वे लोग बातें शुरू करते शर्मा जी बोल पड़े, 'क्यों मियाँ, मैंने तो कहा था कि मैं कहला दूँगा। इन्हें क्यों तकलीफ दी।'

'नहीं! सरकार खुद ही बोले कि हम भी चलेंगे।'

'बैठिए सीमावय्यर जी। आपने इतनी तकलीफ क्यों ली?'

सीमावय्यर ने पानदान और छड़ी दोनों को ओसारे पर रखा और बैठ गए