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९० :: तुलसी चौरा
 


तो पड़ी ही नहीं। डाल दीजिये।' उनकी ओर बढ़ाते हुए बोले।

घर के भीतर से कोई संझवाती लिए आले पर रख गया। कमली थी यह! लगा एक स्वर्ण दीपक दूसरे दीपक को लिये चला आ रहा : हो। सीमावय्यर और अहमद अली ने भी उसे देखा।

'यह कौन है?'

'यहाँ आयी है।'

'यूरोपियन लगती है।'

'हाँ! संध्या वंदन में देर हो रही है। आम तारीख डाल दीजिये।'

सीमावय्यर ने तारीख डालकर पन शर्मा जी को दे दिया।

'ठीक है, उत्तर आने पर मैं कहला दूँगा।' वे हाथ जोड़कर उठ गए।

सीमावय्यर और अहमद अली चले गए।

शर्मा जी का ध्यान संझवाती लाती कमली पर ही केन्द्रित था। संस्कृत काव्यों में कितनी बार पढ़ा है, 'स्वर्ण दीपक लिए दूसरा स्वर्ण दीपक चलता रहा……।' पर यह तो आज ही प्रत्यक्ष देखा। पर यह हुआ कैसे? क्या दीया वह खुद लायी थी। या किसी ने उसे बताया था। अब तो सीमावय्यर को एक मुद्दा भी मिल गया है।

वे यह अच्छी तरह जानते थे कि इस छोटे से गाँव रवि और कमली ने आने की बात छिपा नहीं पायेंगे। बात तो यूँ भी फैल ही गयी है पर इस गुन्डे के सामने कमली ने यह क्या स्थिति पैदा कर दी। ये चिंतित हो उठे।

सीमावय्यर को यह बात तो मालुम ही हो गई होगी, कि उनके बेटा के साथ एक फ्रेंच युवती ठहरी है। पर कैसा नाटक किया यहाँ पर? जैसे पहली बार देख रहे हों। सीसावय्यर की इसी चालाकी पर तो उन्हें क्रोध आता है।

'मठ से सम्बन्धित कागजात को बक्से में रखकर चौके में झांका