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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/१०६

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५. माया और ईश्वरधारणा

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क्रमविकास

हमने देखा कि अद्वैत वेदान्त की एक मूलभित्ति स्वरूप माया- वाद अस्पष्ट रूप से संहिताओ में भी देखा जाता है, और उपनिषदो में जिन तत्वों को खूब परिस्फुट रूप मिल गया है वे सभी संहिताओ में अस्पष्ट रूप से किसी न किसी आकार में विद्यमान है। आप में से बहुत से लोग अब मायावाद के तत्व को सम्पूर्ण रूप से समझ गये होंगे या समझ सकेगे; प्रायः लोग भ्रान्तिवशतः माया को 'भ्रम' कह कर व्याख्या करते हैं, अतएव वे जब जगत् को माया कह कर पुकारते है तब उसे भी भ्रम ही कह कर व्याख्या करनी पड़ेगी। माया को 'भ्रम' के अर्थ में लेना ठीक नहीं है। माया कोई विशेष मत नहीं है, वह तो केवल विश्वब्रह्माण्ड के स्वरूप का वर्णन मात्र है। उसी माया को समझने के लिये हमे संहिता तक जाना पड़ेगा और प्रथम माया का क्या अर्थ था, उसके सम्बन्ध में क्या धारणा थी यह भी देखना पड़ेगा। हम देख चुके हैं, लोगों में देवताओ का ज्ञान किस रूप में आया। हमे समझना होगा कि ये देवता पहले केवल शक्तिशाली पुरुष मात्र थे। आप लोगों में से बहुत से यह पढ- कर कि ग्रीक, हिब्रू, पारसी अथवा अन्य जातियों के प्राचीन शास्त्रों में देवता लोग हमारी दृष्टि में जो सब कार्य अत्यन्त घृणित है वे करते थे,