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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप
कर, केवल कुछ सम्प्रदायों के अथवा कुछ पण्डितों के एकमात्र अधि
कार मे न रह कर इसका समस्त जगत् मे प्रचार होगा जिससे यह
साधु, पापी, आबालवृद्धवनिता, शिक्षित, अशिक्षित सभी की साधारण
सम्पत्ति हो सके। तब ये सब भाव जगत् की वायु मे खेलेगे और हम
जो वायु श्वास-प्रश्वास द्वारा ले रहे है वह प्रत्येक ताल पर बोलेगी--
'तत्त्वमसि', यह असंख्य चन्द्र-सूर्य-पूर्ण ब्रह्माण्ड वाक्योच्चारण
करने वाले प्रत्येक पदार्थ के भीतर से बोल उठेगा--'तत्त्वमसि'!
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