क्या कहीं से थोड़ा जल लाकर पिला सकते हो?" नारद बोले― "प्रभो, कुछ देर ठहरिये, मैं अभी जल लेकर आता हूँ।" यह कह कर नारद चले गये। कुछ दूर पर एक गाँव था, नारद वहीं जल की खोज करने लगे। एक मकान के द्वार पर पहुँच कर उन्होंने खटखटाया। द्वार खुला और एक परम सुन्दरी कन्या उनके सम्मुख आकर खड़ी हुई। उसे देखते ही नारद सब कुछ भूल गये। भगवान उनकी प्रतीक्षा कर रहे होगे, वे प्यासे होगे, हो सकता है प्यास से उनका प्राणवियोग भी हो जाय―ये सभी बाते नारद भूल गये। सब कुछ भूल कर वे उसी कन्या के साथ बातचीत करने लगे, धीरे धीरे एक दूसरे के प्रति प्रणयभाव उत्पन्न होने लगा। तब फिर नारद उस कन्या के पिता के पास जाकर उसके साथ विवाह करने के लिये प्रार्थना करने लगे—विवाह भी हो गया और वे उसी गाँव में रहने लगे― धीरे धीरे उनके सन्तति भी होने लगी। इसी तरह रहते रहते बारह वर्ष बीत गये। नारद के ससुर भी मर गये और उनकी सम्पत्ति के नारद उत्तराधिकारी हो गये और पुत्र कलत्र, भूमि, पशु, सम्पत्ति, गृह आदि को लेकर नारद खूब स्वच्छन्दता पूर्वक सुख से रहने लगे। अन्त में उन्हे यह बोध होने लगा कि वे खूब सुखी है। इसी समय उस देश में बाढ़ आई। एक दिन रात के समय नदी दोनों तटों को तोड़कर बहने लगी और सम्पूर्ण गाँव डूब गया। मकान सब गिरने लगे; मनुष्य, पशु, पक्षी, सब बह बह कर डूबने लगे, नदी की धार में सभी कुछ बहने लगा। नारद को भी भागना पड़ा। एक हाथ से उन्होंने स्त्री को पकड़ा, दूसरे हाथ से दो बच्चों को, और एक बालक को कन्धे पर बिठा कर उस भयङ्कर नदी को पार करने की चेष्टा करने लगे।