पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३१
माया और मुक्ति

परिश्रान्त, भाराक्रान्त मनुष्यों, आओ, मैं तुम्हें आश्रय दूँगा।" यह वाणी ही हम सब को बराबर अग्रसर कर रही है। मनुष्य इस वाणी को सुनता है, अनन्त युगों से सुनता आ रहा है। जिस समय मनुष्य को लगता है कि उसका सब कुछ चला जा रहा है, जब उसकी आशा टूटने लगती है, जब अपने बल में उसका विश्वास नष्ट होने लगता है, जब सभी मानो उसकी अँगुलियों में से खिसककर भागने लगता है और जीवन केवल एक भग्नस्तूप में परिणत हो जाता है, तब वह यही वाणी सुनता है,―और यही धर्म है।

अतएव एक ओर तो यह अभय वाणी, यह आशाप्रद वाक्य है कि-यह सब कुछ नहीं; केवल माया है―इसकी उपलब्धि करो किन्तु इसके बाहर जाने का मार्ग है। दूसरी ओर हमारे सांसारिक लोग कहते हैं―"धर्म, दर्शन―ये सब व्यर्थ की वस्तुये ले कर दिमाग खराब मत करो। जगत् में रहो; यह जगत् बड़ा अशुभपूर्ण है सही, किन्तु जितनी दूर तक हो सके इसका सद्व्यवहार कर लो।" सीधे सादे शब्दो में इसका अर्थ यही है कि उलटे सीधे दिन रात प्रतारणा- पूर्ण जीवन यापन करो—अपने घाव को जब तक हो सके ढक कर रक्खो। एक के बाद दूसरी जोड़-गाँठ करते जाओ यहाँ तक कि सब कुछ नष्ट हो जाय और तुम केवल जोड़गाँठ का एक समूह मात्र रह जाओ। इसी को सांसारिक जीवन कहते है। जो इस जोड़गाँठ से सन्तुष्ट है वे कभी भी धर्मलाभ नहीं कर सकते। जब जीवन की वर्तमान अवस्था में भयानक अशान्ति उत्पन्न हो जाती है, जब अपने जीवन में भी ममता नहीं रहती, जब इस जोड़गाँठ पर अपार घृणा उत्पन्न हो जाती है, जब मिथ्या और प्रवञ्चना के ऊपर भारी -