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ज्ञानयोग

वितृष्णा उत्पन्न हो जाती है तभी धर्म का आरम्भ होता है। वास्तविक धार्मिक होने के योग्य वही है जो, बुद्धदेव ने बोधिवृक्ष के नीचे खड़े होकर दृढ़ स्वर से जो बात कही थी, उस बात को रोम रोम से बोल सकता हो। संसारी होने की इच्छा उनके हृदय में भी एक बार उत्पन्न हुई थी। उस समय उन्होंने स्पष्ट रूप से समझा कि उनकी यह अवस्था, यह सांसारिक जीवन एकदम भूल है; किन्तु इसके बाहर जाने का कोई मार्ग उन्हें नहीं मिल रहा था। प्रलोभन एक बार उनके निकट आया और कहने लगा―सत्य की खोज छोड़ो, संसार में लौटकर वही पुराना प्रतारणापूर्ण जीवन यापन करो, सभी वस्तुओ को उनके गलत नामों से पुकारो, अपने निकट और सब के निकट दिन रात मिथ्या बोलते रहो—यह प्रलोभन उनके पास एक बार आया था, किन्तु उस महावीर ने अतुल पराक्रम से उसी क्षण उसे परास्त कर दिया। उन्होंने कहा―"अज्ञान पूर्वक केवल खापीकर जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है; पराजित होकर जीने की अपेक्षा युद्धक्षेत्र में मरना अच्छा है।" यही धर्म की भित्ति है। जब मनुष्य इस भित्ति के ऊपर खड़ा होता है तब वह सत्य की प्राप्ति के पथ पर, ईश्वर के लाभ के पथ पर चल रहा है ऐसा समझना चाहिये। धार्मिक होने के लिये भी पहले यह प्रतिज्ञा आवश्यक है। मैं अपना रास्ता स्वंय ढूँढ़ लूँगा। सत्य को जानूँगा अथवा प्राण दे दूँगा। कारण, संसार की ओर से तो और कुछ पाने की आशा है ही नहीं, वह तो शून्य स्वरूप है, वह दिन रात अन्तर्हित हो रहा है। आज का सुन्दर आशापूर्ण तरुण पुरुष कल का बूढ़ा है। आशा,आनन्द, सुख― ये सब मुकुलो की भाँति कल के शिशिर-पात से नष्ट हो जायेगे। यह हुई इस ओर की बात; दूसरी ओर विजय का प्रलोभन रहता है।