और वही वस्तु अपनी पूर्ववर्ती किसी अन्य वस्तु का कार्य भी है। इसी को कार्यकारण कहते है। यही हमारा स्थिर विश्वास है। हमारा विश्वास है कि जगत् के प्रत्येक परमाणु का अन्य सभी वस्तुओं के साथ जैसा भी कुछ क्यों न हो, कोई न कोई सम्बन्ध रहता ही है। हमारी यह धारणा किस प्रकार से बन गई इस बात को लेकर बहुत वाद- विवाद हो चुके है। योरप में अनेक सहज प्राज्ञ (Intuitive) दार्शनिक है जिनका यह विश्वास है कि यह मानव जाति की स्वाभाविक धारणा है और बहुत से लोगों का विचार है कि यह धारणा अनुभवजनित है किन्तु इस प्रश्न की मीमांसा अभी तक हो नहीं पाई। वेदान्त इसकी क्या मीमांसा करता है यह हम बाद में देखेंगे। अतएव पहले तो हमे यह समझना है कि 'क्यों' का प्रश्न इस धारणा के ऊपर निर्भर रहता है कि इसके पूर्व कुछ हो चुका है और इसके बाद भी कुछ होगा। इसी प्रश्न में एक अन्य विश्वास भी अन्तर्निहित रहता है कि जगत् का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहीं है, सभी पदार्थों के ऊपर उनके बाहर स्थित अन्य कोई पदार्थ भी कार्य कर सकता है। जगत् के सभी पदार्थ इसी प्रकार परस्पर सापेक्ष है―एक दूसरे के आधीन हैं—कोई भी स्वतंत्र नहीं है। जब हम कहते है कि "ब्रह्म के ऊपर किस शक्ति ने कार्य किया?" तब हम यह भूल करते है कि हम ब्रह्म को जगत् के अन्तर्गत किसी वस्तु के समान मान बैठते है। यह प्रश्न करते ही हमे यह अनुमान करना पड़ेगा कि वह ब्रह्म भी किसी अन्य वस्तु के आधीन है―यह निरपेक्ष ब्रह्मसचा भी किसी अन्य वस्तु के द्वारा बद्ध है। अर्थात् ब्रह्म, अथवा 'निरपेक्ष सत्ता' शब्द को हम जगत् के समान समझते है। ऊपर बताई हुई रेखा के ऊपर तो देश-काल-निमित्त है ही नहीं; कारण, वह एकमेवाद्वितीयम्―मन के अतीत वस्तु
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