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ब्रह्म और जगत्

हृदय में फेफड़ों को भी चला रही है किन्तु 'इच्छा' के रूप में नहीं। इन दोनों शक्तियों को एक मान लेने पर भी जिस समय यह ज्ञान की भूमि में आती है उसी समय 'इच्छा' कहलाती है, किन्तु इस भूमि में आरोहण करने के पहले इसको 'इच्छा' नाम से पुकारना भूल होगी। इसी कारण से शोपेनहावर के दर्शन में बड़ी गड़बड़ी हो गई है। इसके बजाय यदि हम 'प्रज्ञा' और 'संवित्' दो शब्दों का प्रयोग करे तो अधिक उपयुक्त होगा। ये दो शब्द मन की सभी प्रकार की अवस्थाओं के सम्बन्ध में व्यवहृत हो सकते है। प्रज्ञा और संवित् ठीक ठीक ज्ञान की अवस्था अथवा ज्ञान के पूर्व की अवस्था नहीं है, किन्तु इसे मानसिक परिणामसमूह का एक साधारण भाव कहा जा सकता है।

जो हो, इस समय हम यह विचार करेंगे कि हम कोई प्रश्न क्यों करते हैं? एक पत्थर गिरा और हमने प्रश्न किया, इसके गिरने का क्या कारण है? इस प्रश्न का औचित्य अथवा सम्भावना इस अनुमान अथवा धारणा के ऊपर निर्भर करता है कि जो कुछ होता है उसके पहले ही और कुछ हुआ है या हो चुका है। मेरा अनुरोध है कि इस धारणा को आप अपने मन में खूब स्पष्ट रखिये, कारण, जैसे ही हम प्रश्न करते हैं कि-यह घटना क्यो हुई, वैसे ही हम मान लेते है कि सभी वस्तुओं को, सभी घटनाओं का एक 'क्यों' रहता ही है। अर्थात् उसके घटने के पहले और कुछ उसका पूर्ववर्ती रहेगा ही। इसी पूर्ववर्तिता और परवर्तिता को ही निमित्त अथवा 'कार्यकारणभाव' कहते हैं। और जो कुछ हम देखते, सुनते और अनुभव करते है' सक्षेप में जगत् का सभी कुछ, एक बार कारण और एक बार कार्य बनता है। एक वस्तु अपने बाद आने वाली वस्तु का कारण बनती है