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ब्रह्म और जगत्

होने से बहुत ऊँचे पर रह गया। ज्ञात भी नहीं, अज्ञात भी नहीं किन्तु दोनों की अपेक्षा अनन्त गुना ऊँचा। वह तुम्हारा आत्म- स्वरूप है। कौन इस जगत में एक क्षण भी जीवन धारण कर सकता, कौन इस जगत में एक क्षण को भी श्वास-प्रश्वास के कार्य का निर्वाह कर पाता यदि वह आनन्दस्वरूप इसके प्रति-परमाणु में विराजमान न रहता? कारण, उसी की शक्ति से हम श्वास-प्रश्वास का कार्य निर्वाहित करते हैं और उसी के अस्तिव से हमारा भी अस्तित्व है। वह कोई एक विशेष स्थान पर बैठकर हमारा रक्त- सञ्चालन कर रहा है ऐसी बात नहीं है। तात्पर्य यही है कि वही समुदय जगत का सत्तास्वरूप है, वह हमारी आत्मा की भी आत्मा है; आप किसी प्रकार भी यह नहीं कह सकते कि आप उसे जानते हैं― इससे उसको बहुत नीचे गिराना हो जाता है। आप हठात् अपने भीतर से बाहर नहीं आसकते, अतएव आप उसे जान भी नहीं सकते। ज्ञान शब्द से 'विषयीकरण' (Objectification)―वस्तु को बाहर लाकर विषय की भाँति (ज्ञेय वस्तु की भाँति) प्रत्यक्ष करना समझा जाता है। उदाहरण स्वरूप देखिये, स्मरण करने में आप बहुतसी वस्तुओं को 'विषयीकृत' करते हैं—मानो आप अपने ही स्वरूप को बाहर प्रक्षेप करते हैं! सभी प्रकार की स्मृति—जो कुछ मैंने देखा है और जो कुछ मैं जानता हूँ, सभी मेरे मन में अवस्थित है। इन सभी वस्तुओं की छाप या चित्र मेरे भीतर मौजूद है। जब मैं उनके विषय में सोचने की इच्छा करता हूँ, उनको जानना चाहता हूँ तो पहले इन सब को मानो बाहर प्रक्षेप करना पड़ता है। ईश्वर के सम्बन्ध में ऐसा करना असम्भव है, कारण वह हमारी आत्मा का आत्मा स्वरूप है, हम उसे बाहर प्रक्षेप नहीं कर पाते। छान्दोग्य उपनिषद में कहा