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ज्ञानयोग


छोर है और वे ही क्रमसकुचित होकर उसके दूसरे छोर मे जीवाणु के रूप मे प्रकट होते है।

अब यह आलोचना की जाय कि इस ब्रह्माण्ड के कारण के सम्बन्ध मे क्या सिद्धान्त है। इस जगत का अन्तिम परिणाम क्या है? क्या चैतन्य ही वह नही है? ससार की सब से आखिरी वस्तु है चैतन्य। फिर जब क्रमविकासवादियों के मतानुसार यह चैतन्य सृष्टि की शेष वस्तु बनी तो फिर चैतन्य ही सृष्टि का नियन्ता, सृष्टि सृजन का कारण होगा। जगत के विषय में मानव की सर्वश्रेष्ट धारणा क्या हो सकती है? मानव यही धारणा कर सकता है कि जगत का एक भाग दूसरे भाग से सम्बन्धित है और जागतिक प्रत्येक वस्तु मे ज्ञान की क्रिया का विकास है। प्राचीन उद्देश्यवाद (Design Theory) इसी धारणा का अस्फुट आभास है। हम जड़वादियों के साथ यह मानने को तैयार है कि चैतन्य ही जगत की शेष वस्तु है--सृष्टिक्रम मे यही है शेष विकास, परन्तु साथ ही साथ हम यह भी कहते है कि यह शेष विकास हो तो आरम्भ मे भी यही वर्तमान था। जड़वादी कह सकते है, अच्छा, यह तो ठीक है किन्तु मनुष्य जाति के जन्म के पहले जो लाखो वर्ष व्यतीत हुए थे उस समय तो ज्ञान का कोई अस्तित्व नही था। इस बात का उत्तर हम यों देगे कि हॉ, व्यक्त रूप मे चैतन्य नहीं था, लेकिन अव्यक्त रूप मे इसकी उपस्थिति जरूर थी और यह तो एक मानी हुई बात है कि पूर्ण मानव रूप में प्रकाशित चैतन्य ही है सष्टि का अन्त। फिर आदि क्या है? आदि भी चैतन्य है। पहले वही चैतन्य क्रमसकुचित होता है, अन्त मे वही फिर क्रमविकसित होता है।