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जगत्

ओर ही मुड़कर प्रवाहित होने लगी। अपनी आत्मा के सम्बन्ध मे प्रश्न होने लगा। वहिर्जगत से यह प्रश्न अन्तर्जगत मे आ पहुँचा। बहिर्जगत का विश्लेषण हो जाने पर मनुष्य ने अन्तर्जगत का विश्लेषण करना शुरू किया। किन्तु यह भीतरी मनुष्य के सम्बन्ध मे प्रश्न कब उठ खड़ा होता है जानते हो?--या तो उच्चतर सभ्यता से इसकी उत्पत्ति होती है, या प्रकृति के विषय मे गंभीरतम अन्तर्दृष्टि से या उन्नति के उच्चतम सोपान पर आरूढ़ होने से।

यह अन्तर्मानव ही आज हमारी आलोचना का विषय है। अन्त-र्मानव सम्बन्धी यह प्रश्न मनुष्यो के लिये जितना प्रिय है तथा उसके हृदय को जितना द्रवीभूत कर देता है उतना और कुछ नहीं। कितने बार कितने देशो मे यह प्रश्न पूछा गया है। चाहे वह अरण्यवासी सन्यासी हो, चाहे राजा, प्रजा, अमीर, गरीब, साधु या पापी सभी नर-नारियो के मन में यह प्रश्न एक बार ज़रूर उठ खड़ा हुआ है कि इस क्षणस्थायी मानव जीवन मे क्या शाश्वत नाम का कुछ भी नहीं है? इस शरीर का अन्त होने पर भी क्या ऐसा कुछ नहीं है जो कभी नहीं मरता है? जब यह देह धूल मे मिल जाती है तब क्या ऐसा कुछ नहीं रहता जो जीवित रहता हो? अग्नि से शरीर भस्मसात होने पर क्या कुछ भी शेष नहीं रहता? अगर रहता है तो उसका परिणाम क्या है? वह जाता कहाॅ है? कहाॅ से वह आया था? ये प्रश्न बार बार पूछे गये हैं और जब तक यह सृष्टि रहेगी, जब तक मानव-मस्तिष्क की चिन्तनक्रिया बन्द नहीं होगी तब तक यह प्रश्न पूछा ही जायगा। इससे आप लोग यह न समझे कि इसका उत्तर कभी भी नहीं मिला है-- ज्योंही यह