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सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन

को सूखा डालता नहीं है। वेदान्त में वैराग्य का अर्थ है जगत् का ब्रह्म-भाव-जगत् को हम जिस भाव से देखते है, उसे हम जैसा जानते है, वह जैसा हमे प्रतिभात होता है उसका त्याग करो, और उसके वास्तविक रूप को पहचानो। उसे ब्रह्म रूप में दखो― वास्तव में वह ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, इसी कारण सब से प्राचीन उपनिषद में―वेदान्त के सम्बन्ध में जो कुछ भी लिखा गया था उसकी प्रथम पुस्तक में―हम देखते है, 'ईशावास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्या जगत्' (ईश॰ श्लोक १)। 'जगत् में जो कुछ भी है, उसको ईश्वर के द्वारा आच्छादित करना होगा।'

समस्त जगत् को ईश्वर के द्वारा आच्छादित करना होगा; जगत् में जो अशुभ दुःख है, उसकी ओर न देख कर, सभी मड्गलमय है, सभी कुछ सुखमय है अथवा सभी भविष्य में मड्गल के लिये है इस प्रकार के भ्रान्त सुखबाद का अवलम्बन करके नहीं, किन्तु वास्तविक रूप से प्रत्येक वस्तु के भीतर ईश्वर का दर्शन करके। इसी रूप से हमे संसार का त्याग करना होगा और जब संसार का त्याग कर दिया तो शेष क्या रहा? ईश्वर। इस उपदेश का तात्पर्य क्या है? तात्पर्य यही है,―तुम्हारी स्त्री भी रहे, उससे कोई हानि नहीं है, उसको छोड़कर जाना होगा इसका कोई अर्थ नहीं, किन्तु इसी स्त्री में तुम्हे ईश्वर-दर्शन करना होगा। सन्तात का त्याग करो― इसका अर्थ क्या है? क्या बाल-बच्चों को लेकर रास्ते में फेक देना होगा―जैसा कि सभी देशों में नर-पशु किया करते हैं? कमी नहीं―यह तो पैशाचिक काण्ड है―यह तो धर्म नहीं है। फिर क्या करो? सन्तान आदि में ही ईश्वर का दर्शन करो। इसी