ऐसा है तो यह सब शिक्षा देने की क्या आवश्यकता है? अत्यधिक आवश्यकता है। समझ रखना चाहिये, एक दिन मे कुछ नही हो जाता।
'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।' आत्मा के सम्बन्ध मे पहले सुनना होगा, उसके बाद मनन अर्थात् चिन्ता करनी होगी, उसके बाद लगातार ध्यान करना होगा। सभी आकाश देख पाते है, और तो क्या, जो छोटे कीड़े भूमि पर फिरते रहते है वे भी ऊपर की ओर देखने पर नील वर्ण आकाश को देखते है, किन्तु वह हमारे पास से कितनी-कितनी दूर है--बोलो तो! इच्छा करने पर तो मन सभी जगह जा सकता है, किन्तु इस शरीर को प्रयत्न करके चलना सीखने मे ही कितना समय बीत जाता है। हमारे सभी आदर्शों के सम्बन्ध मे भी यही बात है। आदर्श हमसे बहुत दूर है, और हम उनसे बहुत नीचे पडे हुये है, तथापि हम जानते है कि हमे एक आदर्श मान कर रखना आवश्यक है। इतना ही नही, हमे सर्वोच्च आदर्श रखना ही आवश्यक है। अधिकांश व्यक्ति इस जगत् मे कोई आदर्श लिये बिना ही जीवन के इस अन्धकारमय पथ पर भटकते फिरते है। जिसका एक निश्चित आदर्श है वह यदि एक हजार भूलों मे पड़ सकता है तो जिसका कोई भी आदर्श नहीं है वह दस हज़ार भूल करेगा यह निश्चय है। अतएव एक आदर्श रखना ही अच्छा है। इस आदर्श के सम्बन्ध में जितना हो सके सुनना होगा; उतने दिन सुनना होगा जितने दिन वह हमारे अन्तर मे प्रवेश नहीं करता, हमारे मस्तिष्क में प्रवेश नहीं करता, जब तक वह हमारे रक्त के भीतर प्रवेश नहीं करता, जब