पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४६
ज्ञानयोग

सब पदार्थों का यह एकत्व वेदान्त का और एक प्रधान विषय है। हम आगे चल कर देखेंगे कि किस प्रकार वेदान्त सिद्ध करता है कि हमारा समस्त दुःख अज्ञान से उत्पन्न है; वह अज्ञान और कुछ नहीं―यही बहुत्व की धारणा है―यह धारणा कि मनुष्य मनुष्य से भिन्न है, पुरुष और स्त्री भिन्न है, युवा और शिशु भिन्न है, जाति जाति से भिन्न है, पृथिवी चन्द्र से पृथक् है, एक परमाणु दूसरे परमाणु से पृथक् है यह ज्ञान ही वास्तव में सब दुःखों का कारण है। वेदान्त कहता है कि यह भेद वास्तविक नहीं है। यह भेद केवल भासित होता है, ऊपर से दीख पड़ता है। वस्तुओं के अन्तस्तल में वही एकत्व विराजमान है। यदि तुम भीतर जाकर देखो तो इस एकत्व को देखोगे―मनुष्य मनुष्य का एकत्व, नर नारी का एकत्व, जाति जाति का एकत्व, ऊँच नीच का एकत्व, धनी और दरिद्र का एकत्व, देवता और मनुष्य का एकत्व। सभी तो एक है―और यदि और भी भीतर प्रवेश करो तो देखोगे―अन्य प्राणी भी एक ही है। जो इस प्रकार एकत्वदर्शी हो चुके है उनको फिर मोह नहीं रहता। वे अब उसी एकत्व में पहुँच गये है, जिसको धर्मविज्ञान में ईश्वर कहते है। उनको अब मोह कैसे रह सकता है? मोह उसको उत्पन्न ही कैसे होगा? उन्होंने सभी वस्तुओं का आभ्यन्तरिक सत्य जान लिया है, सभी का रहस्य जान लिया है। उनके लिये अब दुःख कसे रह सकता है? वे अब क्या वासना-कामना करेगे? वे सभी वस्तुओ के अन्दर वास्तविक सत्य की खोज करके ईश्वर तक पहुँच गये है, जो जगत् का केन्द्रस्वरूप है, जो सभी वस्तुओ का एकत्व- स्वरूप है। यही अनन्त सत्ता है, यही अनन्त ज्ञान है, यही अनन्त आनन्द है। वहाँ मृत्यु नहीं, रोग नहीं, दुःख नहीं, शोक नहीं,