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ज्ञानयोग

के द्वारा घट जाने पर अन्त में बिलकुल नष्ट हो जायगा और केवल मंगल ही विराजित रहेगा―यह कहना बड़ा सरल है। किन्तु क्या यह प्रमाणित किया जा सकता है कि अमंगल का परिमाण निर्दिष्ट रहता है? क्या अमंगल की भी क्रमशः वृद्धि नहीं हो रही है? एक जंगली मनुष्य है जो मनोवृत्तियों के परिचालन से सर्वथा अनभिज्ञ है, एक पुस्तक भी नहीं पढ़ सकता, हस्तलिपि किसे कहते हैं, उसने कभी सुना भी नहीं; आज रात को उसके बीस टुकड़े कर दो, कल वह स्वस्थ हो उठेगा। धार धरा हुआ अस्त्र उसके शरीर में घुसा कर बाहर निकाल लो, फिर भी वह अच्छा हो जायगा; किन्तु हम अधिक सभ्य होने पर भी मार्ग में चलते हुए ठोकर खाते ही मर जाते हैं।

मशीनों के द्वारा धन आदि सुलभ हो रहा है; उन्नति और क्रमविकास की वृद्धि हो रही है; किन्तु एक व्यक्ति धनी हो जायगा इसलिये लाखों मनुष्यों को पीसा जा रहा है―एक व्यक्ति धनवान बने इसलिये सहस्रों मनुष्य दरिद्र से दरिद्रतर हो रहे हैं―संख्यातीत मनुष्य के वंशज क्रीतदास बनाये जा रहे हैं। जगत् की धारा ही ऐसी है। जो मनुष्य पशुवत् हैं उनके समस्त सुखभोग इन्द्रियों में ही सीमित हैं। उनके दुख और सुख इन्द्रियों के भीतर ही सन्निविष्ट हैं। यदि उसे पर्याप्त भोजन नहीं मिलता अथवा उसे कोई शारीरिक रोग या कष्ट होता है तो वह अपने को अभागा समझता है। इन्द्रियों में ही उसके सुख-दुःख का उत्थान और पर्यवसान हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति की जब उन्नति होती रहती है तो उसके सुख की सीमा के विस्तार के साथ ही साथ उतने ही परिमाण में उसके दुःख की भी वृद्धि होती जाती है। जंगली मनुष्य ईर्ष्या के वश में होना