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अपरोक्षानुभूति

ही मनुष्यों को बद्ध करते है। जो इनमें से श्रेय को ग्रहण करते हैं, उनका कल्याण होता है, और जो आपातरम्य भोग को ग्रहण करते है, वे लक्ष्यभ्रष्ट होते हैं। ये श्रेय और प्रेय दोनों ही मनुष्य के समीप उपस्थित होते हैं। ज्ञानी दोनों पर विचार कर एक को दूसरे से पृथक् जानते हैं। वे श्रेय को प्रेय से श्रेष्ठ समझकर स्वीकार करते है, किन्तु अज्ञानी पुरुष अपने शारीरिक सुख के लिये प्रेय को ही ग्रहण करते हैं। हे नचिकेता! तुमने आपातरम्य समग्र विषयों की नश्वरता समझ कर उन सभों को छोड़ दिया है।" इन वचनों से नचिकेता की प्रशंसा कर अन्त में यम ने उसे परम तत्व का उपदेश देना आरम्भ किया।

यहाँ पर हमें वैदिक वैराग्य और नीति की अत्युन्नत धारणा प्राप्त हुई कि जितने दिन तक मनुष्य की भोगवासना का त्याग नहीं होता, उतने दिन तक उसके हृदय में सत्य-ज्योति का प्रकाश नहीं हो सकता। जितने दिन तक ये तुच्छ विषयवासनायें तुमुल कोलाहल करती हैं, जितने दिन तक प्रति मुहूर्त वे हमलोगों को खींच कर बाहर ले जाती हैं—लेजाकर हमें प्रत्येक वाह्य वस्तु का, एक बिन्दु रूप का, एक बिन्दु रस का, एक बिन्दु स्पर्श का दास बनाती हैं, उतने दिन चाहे जितना हम ज्ञान का अभिमान क्यों न करे, हमलोगों के हृदय में सत्य किस तरह प्रकाशित हो सकता है?

यम बोले—"जिस आत्मा के सम्बन्ध में, जिस परलोकतत्व के सम्बन्ध में तुमने प्रश्न किया है, वह वित्त-मोह से मूढ़ बालकों के हृदय में प्रतिभात नहीं हो सकता है। इसी जगत् का अस्तित्व है, परलोक का नहीं, यह माननेवाले बारम्बार मेरे वश में आते हैं।"