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ज्ञानयोग

सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित होंगे—तथा और भी अनेक प्रकार के संदेह उठेंगे, परन्तु हम देखेंगे कि सभी में हम अपने पूर्व संस्कारों के द्वारा संचालित होते हैं। हमारे मन पर इन पूर्व संस्कारों का अतिशय प्रभाव है। जो बाल्यकाल से केवल सगुण ईश्वर की और मन के व्यक्तिगत तत्व (The personality of the mind) की बात सुनते हैं, उनके लिये पूर्वोक्त बातें अवश्य ही अति कर्कश मालूम पड़ेंगी, किन्तु यदि हम उन्हें सुनें और यदि दीर्घकाल तक उनकी चिन्ता करें, तो वे बातें हमारे प्राणों में भिंद जायँगी, हम फिर इस तरह की बातें सुनकर भयभीत न होंगे। हाँ, दर्शन की उपकारिता अर्थात् कार्यकारिता के सम्बन्ध में मुख्य प्रश्न अवश्य है। उसका केवल एक ही उत्तर दिया जा सकता है। यदि प्रयोजनवादियों के मत में सुख का अन्वेषण करना मनुष्य के लिये कर्तव्य है, तो आध्यात्मिक चिन्ता में जिन्हें सुख मिलता है, वे क्यों न आध्यात्मिक चिन्ता में सुख का अन्वेषण करें? अनेक लोग विषयभोग में सुख पाने के कारण विषयसुख का अन्वेषण करते हैं, किन्तु ऐसे अनेक व्यक्ति हो सकते हैं जो उच्चतर भोग का अन्वेषण करते हैं। कुत्ता केवल खाने पीने से सुखी होता है। किन्तु वैज्ञानिक विषयसुख को तिलाञ्जलि दे, केवल कुछ ही तारों की स्थिति जानने के लिये ही शायद किसी पर्वत के शिखर पर वास करते हैं। वे जिस अपूर्व सुख का आस्वाद पाते हैं, कुत्ता उसे समझने में अक्षम है। कुत्ता उन्हें देखकर हँस सकता है और उन्हें पागल कह सकता है। हो सकता है बिचारे वैज्ञानिक को विवाह भी करने की सुविधा न मिली हो। हो सकता है, वे केवल रोटी के कुछ टुकड़े और थोड़ेसे पानी के आधार पर ही पर्वत के शिखर पर रहते हैं। किन्तु वैज्ञानिक कहेंगे, "भाई कुत्ते! तुम्हारा सुख केवल इन्द्रियों में आबद्ध है; तुम