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ज्ञानयोग


उत्तर देगा। और वास्तविक बात भी ऐसी ही है। जिसने निम्नतर भोगवासनाओं का अन्त कर लिया है, वही धर्माचरण कर सकता है। हम लोगो को भोग भोगकर आघातो द्वारा सीखना होगा, जहाॅ तक हमारी दौड है, वहाॅ तक दौड लेना होगा। जब इस संसार मे हमारी दौड निवृत्त होती है, तभी हम लोगों की दृष्टि के समक्ष परलोक प्रतिभात होता है।

इस विषय मे और एक विशेष समस्या हमारे मन मे उत्पन्न हुई। सुनने मे बात तो बडी कर्कश है, परन्तु है वह वास्तविक सत्य कथा। यह विषय-भोगवासना किसी किसी समय और एक रूप धारण करके उदित होती है--उसमे वडी विपदाशंका है, फिर भी वह आपाततः रमणीय है। यह बात तुम सर्वदा सुनते हो। अत्यन्त प्राचीन काल मे भी वह धारणा थी--वह प्रत्येक धर्म-विश्वास के अन्तर्गत है और वह यह है कि एक ऐसा समय आयेगा जब संसार का समस्त दुःख समाप्त हो जायगा, केवल सुखांश ही अवशिष्ट रह जायगा और पृथ्वी स्वर्गराज्य मे परिणत हो जायगी। पर मेरा इस बात पर विश्वास नही है। हमारी पृथ्वी जैसी है, वैसी ही रहेगी। अवश्य ही यह बात कहना बहुत भयानक है, किन्तु यह न कहकर और कोई मार्ग देखता ही नहीं हूॅ। यह बात रोग के समान है। मस्तक से उतारो तो पैर मे जायगा। एक स्थान से हटा देने से दूसरे स्थान मे चला जायगा। कुछ भी क्यों न करो, वह किसी भी तरह पूर्णरूपेण दूर नहीं हो सकता। दुःख भी इसी तरह है। अति प्राचीन काल मे लोग जंगल मे रहा करते थे और एक दूसरे को मारकर खा लेते थे। वर्तमान काल मे मनुष्य एक दूसरे मनुष्य का मांस नही