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ज्ञानयोग


की व्यर्थ वासना और फिर इसके आगे स्वर्ग जाकर उसी तरह रहने की वासना--अर्थात् सर्वदा इन्द्रिय और इन्द्रियसुख में लिप्त रहने की वासना ही मृत्यु को लाती है।

यदि हम पशुओं की उन्नत अवस्था मात्र है, तो जिस विचार से यह सिद्धान्त लब्ध हुआ उसी विचार से यह सिद्धान्त भी हो सकता है कि पशुगण मनुष्य की अवनत अवस्था मात्र है। तुमने यह कैसे समझा कि वैसा नहीं है? तुम जानते हो--क्रमविकासवाद का प्रमाण केवल यही है कि निम्नतम प्राणी से लेकर उच्चतम प्राणी तक सभी शरीर परस्पर-सदृश हैं, किन्तु उससे तुमने किस प्रकार यह सिद्धान्त निकाला कि निम्नतम प्राणी से क्रमशः उच्चतम प्राणी जन्मा है, न कि यह कि उच्चतम से क्रमशः निम्नतम प्राणी उत्पन्न हुआ है? दोनों ही ओर समान युक्ति है--और यदि इस मतवाद मे वास्तविक कुछ सत्य है, तो हमारा यह विश्वास है कि एकबार नीचे से ऊपर, फिर ऊपर से नीचे गति होती है--अर्थात् लगातार इस देहश्रेणी का आवर्तन हो रहा है। क्रमसकोचवाद स्वीकार न करने पर क्रमविकासवाद किस तरह सत्य हो सकता है? जो कुछ भी हो, मै जो कह रहा था कि मनुष्य की लगातार अनन्त उन्नति नहीं हो सकती यह इससे अच्छी तरह स्पष्ट होजाता है।

'अनन्त' जगत् मे अवश्य अभिव्यक्त हो सकता है, इसे यदि मुझे कोई समझा सके तो मै उसे समझने को प्रस्तुत हूॅ, किन्तु हम लगातार सरल रेखा मे उन्नति करते जा रहे है, इस बात पर मेरा बिलकुल विश्वास नहीं है। यह तो एक असंबद्ध प्रलाप मात्र है। सरल रेखा मे किसी प्रकार की गति हो ही नहीं सकती। यदि तुम अपने सामने ही